अध्यात्म से लेकर विज्ञान तक ने पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्नि जैसे जीवनदायिनी पंचतत्त्वों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना सिखाया। इसीलिए संसार की सभी संस्कृतियों में इस बात की अहमियत को समझा गया कि अगर जल का उचित संचयन और संग्रहण नहीं किया गया तो मानव जीवन खतरे में पड़ सकता है। हड़प्पा से लेकर मेसोपोटामिया और ग्रीस तक सभी प्राचीन सभ्यताओं में जल संचयन और संग्रहण की एक वैज्ञानिक व्यवस्था थी।

आर्यभट्ट प्रथम के शिष्य वराहमिहिर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ में भूजल की खोज और उसके उपयोग के बारे में सवा सौ सूत्र वर्णित किए हैं, जिनकी मदद से करीब छह सौ मीटर की गहराई तक मिलने वाले पानी के बारे में पता करना संभव है। हड़प्पा काल के ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से पता चलता है कि उस काल में बने हर तीसरे मकान में कुआं था।

आज प्रौद्योगिकी बहुत विकसित हो गई है, लेकिन पानी और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव नदारद दिखता है। जल संसाधनों के गैर जिम्मेदाराना दोहन की वजह से हम एक बड़े जल संकट की ओर बढ़ रहे हैं। इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने आसन्न जल संकट की चेतावनी देते हुए कहा है कि पानी की कमी को पूरे विश्व में भविष्य के संकट के रूप में देखा जा रहा है।

एक जगजाहिर तथ्य है कि भारत में हजारों वर्ष पहले प्रकृति, पर्यावरण और पानी को लेकर संयमित, संतुलित एवं संवेदनशील व्यवस्था का सृजन किया गया था। प्रधानमंत्री ने भी कहा कि जल संरक्षण की भावना हजारों साल से हमारी संस्कृति का हिस्सा है। मगर आज हालत यह है कि न सिर्फ खेती से लेकर अन्य सभी जरूरी उपयोग के लिए पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि पेयजल के लिए भी हमें बाजार का मुंह देखना पड़ रहा है।

इस मसले की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि आज भूजल से लेकर वर्षाजल के संरक्षण तक के लिए विशेष उपाय और प्रावधान तक करने की जरूरत पड़ने लगी है। जाहिर है, यह स्थिति अब एक बार फिर जल संरक्षण के लिए प्राचीन तरीके अपनाने की जरूरत को रेखांकित करती है।

दरअसल, धरती पर उपलब्ध कुल पानी में सिर्फ 2.7 फीसद ही मीठा जल है। भारत में दुनिया के मीठे जल का 3.5 फीसद हिस्सा है, लेकिन इसके भी नवासी फीसद हिस्से का उपयोग कृषि क्षेत्र में हो जाता है। जल संचयन के पुराने तरीकों को आमतौर पर भुला दिया गया है। वनों की कटाई और शहरीकरण के नतीजे में ज्यादातर तालाब, बावड़ियां और जोहड़ विलुप्त हो चुके हैं।

देश में पिछले कुछ वर्षों से प्रति व्यक्ति जितना भूजल एकत्र होता है, उसके दोगुने से भी अधिक मात्रा में उपयोग कर लिया जाता है। नतीजे में देश में भूजल स्तर हर साल एक से तीन मीटर की दर से नीचे खिसकता जा रहा है। इस भूमिगत जल का भी एक बड़ा हिस्सा प्रदूषित हो चुका है। अगले दो-तीन दशकों में देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता दो हजार घन मीटर से घट कर 1500 घन मीटर पर आ जाएगी। यानी पीने के पानी का भी संकट गहरा सकता है और खेती-किसानी बर्बाद हो सकती है। ऐसे में जल संचयन और संग्रहण के उन्हीं तरीकों को अपनाना और पुनर्जीवित करना वक्त की जरूरत है, जो हमारे पुरखों ने विकसित किए थे।