अफगानिस्तान में फिर से तालिबान राज कायम होने जा रहा है। रविवार को राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोड़ कर ताजिकिस्तान चले जाने के बाद अंतरिम सरकार के गठन की तैयारियां शुरू हो गईं। अंतरिम सरकार के जरिए ही अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान को सौंपी जाएगी। तालिबान ने मुल्ला बरादर को देश का भावी राष्ट्रपति घोषित कर दिया है। रविवार को काबुल में तालिबान की दस्तक देश के भविष्य का संकेत देने के लिए काफी है।
अशरफ गनी चाहते थे कि तालिबान बातचीत कर सत्ता में भागीदारी जैसी बात पर राजी हो जाए। लेकिन तालिबान इस प्रस्ताव को पहले ही ठुकरा चुका था। अब जो हालात हैं उनसे साफ है कि अफगानिस्तान पहले के मुकाबले अब कहीं ज्यादा बड़े संकटों में घिर गया है। शांति वातार्ओं का कोई मतलब नहीं रह गया है। ज्यादा चिंता इसलिए भी है कि अब इस देश में गृहयुद्ध का खतरा बढ़ता जा रहा है। और अगर एक बार गृहयुद्ध भड़क उठा तो यह इस मुल्क के लिए हर तरह से बबार्दी वाला साबित होगा। गौरतलब है कि पिछले चार महीने में तालिबान ने देश के ज्यादातर हिस्सों पर कब्जा जमा लिया। उसकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हाल में केवल दो दिन में ही उसने छह प्रांतों को अपने नियंत्रण में ले लिया।
इससे साफ है कि तालिबान की ताकत के आगे अफगान सेना बिना किसी प्रतिरोध के हथियार डालती रही। यह इस बात का भी प्रमाण है कि सेना के नाम पर अफगानिस्तान के पास कुछ नहीं बचा रह गया। अमेरिका भले दावे करता रहा हो कि उसने लाखों अफगान सैनिकों को प्रशिक्षण दे दिया है और तालिबान से निपटने की सारी कलाएं सिखा दी हैं, लेकिन अगर ऐसा होता तो तालिबान लड़ाके इतनी आसानी से काबुल नहीं पहुंच जाते। ढाई दशक पहले तालिबान ने छापामार युद्ध और हिंसा से सत्ता हथियाई थी। पर इस बार उसने अलग रणनीति अपनाई। कूटनीति से काम लिया। उसने अफगान प्रशासन और सेना में पैठ बनाई। सरकारी सैन्य कमांडरों से लेकर सैनिकों तक को अपने साथ मिलाया। तालिबान ने कहा भी है कि वह शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता चाहता है और लोगों की जानमाल की सुरक्षा उसकी प्राथमिकता है। ऐसे में अब तालिबान को सत्ता में आने से कौन रोक पाता!
देखने की बात तो यह है कि आने वाले दिनों में काबुल की तस्वीर कैसी बनती है। पद छोड़ने के लिए राष्ट्रपति अशरफ गनी पर अमेरिका का भी दबाव था। अमेरिका की चिंता सिर्फ अपने दूतावास, कर्मचारियों और नागरिकों की है। इसलिए उसने पांच हजार सैनिक काबुल में उतार दिए हैं। जाहिर है, हालात की नजाकत को देखते हुए अमेरिका भी तालिबान के साथ तालमेल बनाने से परहेज नहीं करेगा। अंतरिम सरकार के गठन में भी वह अपनी चलाएगा। लेकिन अब बड़ा सवाल यह है कि वैश्विक समुदाय तालिबान सरकार को समर्थन देता है या नहीं। पिछली बार तो सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान के अलावा किसी ने तालिबान की सत्ता को समर्थन नहीं दिया था। पर अब हालात अलग हैं।
रूस ने शांति वार्ता में भारत और ईरान को शामिल करने का सुझाव दिया है। पर क्या पाकिस्तान को यह बात पचेगी? भारत की चिंता भी अफगानिस्तान में रह रहे भारतीयों और सिख समुदाय के लोगों की सुरक्षा और वहां अरबों रुपए की भारतीय परियोजनाओं को लेकर है। ऐसे में भारत तालिबान को कैसे साधता है, यह बड़ी चुनौती है। जो भी हो, फिलहाल सबकी प्राथमिकता अफगानिस्तान को खून-खराबे से बचाने की होनी चाहिए।