इस बार सिंगापुर में आयोजित आसियान शिखर सम्मेलन में भारत एक बार फिर मजबूत राष्ट्र के रूप में उभरा। इस सम्मेलन के दौरान आसियान देशों के साथ वाणिज्य-व्यापार संबंधी समझौतों के अलावा उल्लेखनीय उपलब्धि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति और समृद्धि संबंधी प्रयासों को थोड़ा और बल मिलना है। आसियान संगठन में इंडोनेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया, फिलीपिंस, विएतनाम, म्यांमा, कंबोडिया, ब्रूनेई और लाओस के साथ-साथ भारत, आस्ट्रेलिया, चीन, जापान, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, रूस और अमेरिका शामिल हैं। इस संगठन का मकसद परस्पर मिल कर वाणिज्य, व्यापार और शांति के लिए काम करना है। इसके शिखर सम्मेलन में दूसरे देशों के भी प्रतिनिधि हिस्सा लेते और वाणिज्य-व्यापार संबंधी संभावनाओं की तलाश करते हैं। पर इसके अलावा यह सम्मेलन शांति प्रयासों के लिहाज से भी रणनीति तैयार करता है। इसके ज्यादातर सदस्य देशों का ताल्लुक हिंद-प्रशांत क्षेत्र से है, इसलिए स्वाभाविक ही इस क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा होती है। यों हिंद-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त रखने पर जोर पिछले करीब दस सालों से दिया जा रहा है, पर आसियान शिखर सम्मेलन में पिछले चार सालों से इस पर गंभीरता से विचार-विमर्श होता है। इसके अलावा भी कई मौकों पर इसे लेकर विभिन्न देशों के नेताओं के बीच बातचीत होती रही है।
दरअसल, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हिंद महासागर, प्रशांत महासागर और दक्षिण चीन सागर के हिस्से शामिल हैं। हालांकि चीन पूरे दक्षिण चीन सागर पर अपना अधिकार जताता है। इसी के तहत वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी सैन्य गतिविधियां लगातार बढ़ाता रहा है। पर मलेशिया, फिलीपिंस, विएतनाम, ताईवान, ब्रूनेई इसका विरोध करते रहे हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियों की वजह से भारत को भी खतरा है। वैसे भी भू-सीमा पर भारत के साथ चीन का विवाद पुराना है। फिर इधर कुछ सालों से जिस तरह पाकिस्तान के साथ उसकी निकटता बढ़ी है, उससे भारत की चिंता और बढ़ गई है। अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया भी चीन की इन गतिविधियों से चिंतित हैं। चूंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, इसलिए ये तीनों देश भारत को इसके लिए बल प्रदान करते रहते हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के हितों की रक्षा के लिए अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत का एक अलग संगठन भी बनाने का प्रस्ताव है। ऐसे में सिंगापुर में अमेरिकी उपराष्ट्रपति माइक पेंस और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर हुई बातचीत से एक बार फिर उम्मीदों को बल मिला है। पिछले महीने जापान यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने वहां के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ बैठक में भी इस मुद्दे पर विचार-विमर्श किया था। सिंगापुर में भारत और अमेरिका के विदेश विभाग के अधिकारियों की बातचीत में भी यह मुद्दा अहम था।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त बनाने को लेकर भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया का दबाव बढ़ेगा, तो चीन को अपनी गतिविधियों पर विराम लगाना ही पड़ेगा। दरअसल, आज दुनिया में वही देश ताकतवर माने जाते हैं, जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। इसलिए कोई भी देश सामरिक दबदबे से दूसरे देशों के साथ अपने वाणिज्यिक-व्यापारिक रिश्ते खराब नहीं करना चाहेगा। चीन को दुनिया भर में बाजार की जरूरत है, पर वह अपनी सामरिक ताकत की धौंस से भौगोलिक विस्तारवादी नीतियों को भी आगे बढ़ाने का प्रयास करता रहता है। मगर आज की स्थितियों में व्यापार के स्तर पर दोस्ती और सीमा पर ताकत दिखाने की रणनीति साथ-साथ नहीं चल सकती। इसलिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन को अपना रुख बदलना होगा।