छत्तीसगढ़ विधानसभा के पहले चरण में करीब सत्तर फीसद मतदान इस बात का संकेत है कि वहां के लोगों ने नक्सली प्रभाव को नकार दिया। नक्सली संगठन लगातार लोगों पर चुनाव में हिस्सा न लेने का दबाव बनाए हुए थे। उन्होंने प्रशासन के कामकाज में अड़चन पैदा करने के मकसद से कई जगह बारूदी सुरंगों से विस्फोट भी किए। जिन इलाकों में पहले चरण का मतदान हुआ उनमें अठारह में से बारह सीटें अनुसूचित जनजाति और एक अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। माना जाता है कि इन वर्गों के लोगों पर ही नक्सली लोगों का दबाव अधिक पड़ता है। वे इन्हीं के हकों की लड़ाई का नारा देकर अपना प्रभाव कायम करते हैं। पर इन वर्गों पर नक्सलियों का दबाव काम नहीं आया, तो यह एक तरह से वहां के प्रशासन की बड़ी कामयाबी कही जाएगी। यों चुनाव के मद्देनजर नक्सल प्रभावित इलाकों में भारी पैमाने पर सुरक्षाबलों की तैनाती की गई थी, अत्याधुनिक तकनीक के जरिए नक्सली गतिविधियों पर नजर रखी जा रही थी और उनकी कई योजनाओं को नाकाम कर दिया गया था। इससे भी मतदान केंद्रों तक उनकी पहुंच नहीं बन पाई।

नक्सली संगठनों की असली ताकत आदिवासी लोगों का समर्थन रहा है। वे जल जंगल जमीन बचाने का नारा देकर आदिवासियों को अपनी तरफ झुकाने में कामयाब होते रहे हैं। उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन नहीं, इसलिए वे सत्ता में हिस्सेदारी करके स्थितियों को बदलने के पक्ष में कभी नहीं रहे। इसी सिद्धांत के तहत उनकी कोशिश रहती है कि आम लोग भी इस प्रक्रिया में हिस्सा न लें। मतदान कम होता, तो एक तरह से उनकी जीत होती। पर ऐसा नहीं हो सका, तो एक तरह से स्थानीय लोगों ने उन्हें आईना ही दिखाया है। इससे यह भी साबित होता है कि लोग मतदान का महत्त्व समझने लगे हैं और वे जान गए हैं कि समस्याओं का निदान बंदूक से नहीं, शासकीय व्यवस्था के जरिए ही तलाशा जा सकता है। मतदान न करके वे व्यवस्था नहीं बदल सकते। कम मतदान हो, तब भी किसी न किसी की विजय होगी ही और जो सत्ता में पहुंचेगा, आखिरकार वही नियम-कायदे बनाएगा, समस्याओं का हल निकालने का प्रयास करेगा। इसमें बेहतर यही है कि अपनी पसंद के और भरोसेमंद लोगों को सत्ता में भेजा जाए, जो उनकी भावनाओं के अनुरूप काम करें। इसलिए लोगों ने नक्सली दबाव में न आकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेना बेहतर समझा।

हालांकि विभिन्न अध्ययनों से यह भी जाहिर हो चुका है कि छत्तीसगढ़ में नक्सली प्रभाव सिमट रहा है। नए नक्सली भर्ती नहीं हो रहे और जो पहले से बंदूक उठाए हुए हैं, उनकी उम्र बढ़ने की वजह से वे पहले जैसा दमखम नहीं दिखा पा रहे। दूसरी बात कि स्थानीय लोग अब उस तरह उन्हें पनाह नहीं दे रहे, जैसे पहले दिया करते थे। इससे भी यही जाहिर होता है कि नई पीढ़ी अब बंदूक में नहीं, विकास के जरिए रोजी-रोजगार के अवसर तलाशने में अपना भविष्य देख रही है। वह पढ़-लिख कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो रही है। अपनी पुरानी पीढ़ियों की तरह जंगल पर निर्भर नहीं रहना चाहती। इसलिए भी उसमें विरोध का स्वर कुछ मद्धिम हुआ है। यह प्रशासन के लिए अच्छा संकेत है। ऐसे माहौल में अगर नक्सल प्रभावित इलाकों के लोगों में विकास कार्यों और उनकी बुनियादी जरूरतों का ध्यान रखते हुए भरोसा जमाने का प्रयास जारी रहे, तो निस्संदेह मुश्किलें आसान होंगी।