बीते वर्षो में बजट पेश होने के बाद विपक्ष की सामान्य प्रतिक्रिया होती थी कि यह दिशाहीन बजट है। ऐसी बात वर्ष 2015-16 के बजट को लेकर नहीं कही जा सकती। इस बजट की दिशा स्पष्ट है। यह कॉरपोरेट और धनी तबके पर मेहरबानी और बाकी लोगों के प्रति अनुदारता का बजट है। आबंटन और कर संबंधी लगभग सारे प्रस्ताव इसी की गवाही देते हैं। लिहाजा, वित्तमंत्री अरुण जेटली दावा कुछ भी करें, बजट गरीब-हितैषी नहीं है। वित्तमंत्री को सबसे ज्यादा फिक्र उन लोगों की रही है जो आसानी से सरकारी खजाने में अधिक अंशदान कर सकते थे। पर अब उन्हें पहले से भी कम चुकाना होगा। मोदी सरकार ने संपदा-कर समाप्त करने के साथ ही कॉरपोरेट-कर तीस फीसद से घटा कर पच्चीस फीसद कर दिया है। स्वाभाविक ही कॉरपोरेट जगत गदगद है, अलबत्ता संतोष उन्हें अब भी नहीं है। दूसरी ओर, कल्याणकारी योजनाओं पर वित्तमंत्री ने निर्ममता से कुल्हाड़ी चलाई है। मिड-डे मील की बाबत केंद्रीय अंशदान में पच्चीस फीसद की कटौती हुई है। सर्वशिक्षा अभियान का आबंटन भी कम हुआ है। प्राथमिक शिक्षा के मद में इक्कीस फीसद की कटौती हुई है, वहीं एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम में पचास फीसद की। मनरेगा के बारे में प्रधानमंत्री की राय अच्छी नहीं है, लेकिन इन योजनाओं का पैसा क्यों घटा दिया गया, जो पहले से ही निहायत अपर्याप्त आबंटन का शिकार रही हैं?

हाशिये पर जीने वाले और कमजोर तबकों के साथ तो सरकार कठोरता से पेश आई ही है, मध्यवर्ग के साथ भी उसने कोई अच्छा सलूक नहीं किया है। सेवा-कर पहले ही अधिक था। अब वह 12.3 फीसद से बढ़ कर चौदह फीसद हो जाएगा। मध्यवर्ग को इसकी सीधी आंच लगेगी। सेवा-कर में बढ़ोतरी आय-कर में कोई राहत न मिलने के कारण और भी चुभेगी। आर्थिक समीक्षा में सरकार ने महंगाई के नियंत्रण में आने की डींग हांकी थी। पर सेवा-कर में यह बढ़ोतरी महंगाई को ही न्योता देगी। कॉरपोरेट-कर में पांच फीसद की कमी के पीछे जेटली की दलील है कि हमारे यहां इसकी दर ऊंची रही है, जबकि दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में यह कम है। मगर कर-प्रावधान हर देश के अपने हालात के मद््देनजर किए जाते हैं, या किए जाने चाहिए। दक्षिण पूर्व एशिया में कहीं भी आबादी का इतना बड़ा हिस्सा गरीब और बुनियादी सुविधाओं से वंचित नहीं है, जैसा हमारे यहां है। बजट की प्राथमिकताएं हमारे देश के यथार्थ के हिसाब से तय होनी चाहिए, पर हुआ उलटा है। आय-कर में कोई रियायत न मिलने और सेवा-कर में बढ़ोतरी पर वित्तमंत्री का तर्क है कि वित्त आयोग की सिफारिशों के मुताबिक केंद्रीय राजस्व में राज्यों को अब ज्यादा हिस्सेदारी देने के कारण सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। मगर इसका अहसास उन्हें कॉरपोरेट-कर घटाने और संपदा-कर समाप्त करने का फैसला करते वक्त क्यों नहीं रहा?

कृषिक्षेत्र के लिए भी सरकार ने कुछ नहीं किया, सिवा इसके कि कृषि-कर्ज की राशि बढ़ा दी है। तमाम किसान कर्जों के बोझ से दबे हुए हैं, जिनमें साहूकारों से लिया गया कर्ज भी शामिल है और बैंकों से लिया गया भी। कर्ज के लिए साहूकारों पर उनकी निर्भरता खत्म होनी चाहिए। पर खेती का असल संकट यह है कि वह पुसाने लायक नहीं रह गई है। जब मौसम की मार, कीट-प्रकोप या किसी अन्य कारण से फसल चौपट होती है, तब तो किसान मुसीबत में होता ही है, जब पैदावार अच्छी होती है तब भी अमूमन वाजिब दाम न मिलने से किसान खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। इसी के मद्देनजर भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि फसल की लागत से पचास फीसद अधिक के फार्मूले पर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने सहित स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएंगी। पर बजट ने किसानों को भी निराश किया है और लघु उद्यमियों को भी। बजट में काले धन के मसले पर सोची-समझी खामोशी है। वित्तमंत्री चाहते तो चिकित्सा-उपकरणों की कीमत कम हो सकती थी। वैसा करना तो दूर, दिल्ली के कई अस्पतालों के आबंटन उन्होंने घटा दिए हैं। जेटली ने अपने बजट-भाषण का समापन ‘सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया’ के सुभाषित से किया। पर विडंबना यह है कि उनके बजट ने सर्व की चिंता छोड़ कर, कुबेरों का ही खयाल रखा है।

 

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