अण्णा हजारे ने एक बार फिर दिल्ली के जंतर मंतर से हुंकार भरी है। इस बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ। उनके इस आंदोलन को काफी समर्थन भी मिलता दिख रहा है। इसका कारण उन्हें जनलोकपाल आंदोलन से मिली प्रतिष्ठा ही नहीं है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी होने के समय से ही इसके विरोध में देश भर में सुगबुगाहट रही है। कहा जा सकता है कि अण्णा ने फिर ठीक समय पर देश की नब्ज पहचानी है। धरना शुरू करते हुए उन्होंने कहा कि मोदी सरकार को किसानों के हितों की कोई परवाह नहीं है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन ने मोदी सरकार और भाजपा को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। कल तक वित्तमंत्री अरुण जेटली इस अध्यादेश की पैरवी में मुखर थे। पर अब सरकार सांसत में है और इस आंदोलन के और व्यापक शक्ल अख्तियार करने की संभावना से डरी हुई है। इस स्थिति के लिए सबसे ज्यादा मोदी जिम्मेवार हैं। उन्होंने इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया कि पिछली सरकार के समय जब भूमि अधिग्रहण संबंधी नया कानून बना तो उनकी पार्टी का क्या रुख था। भाजपा ने तब इस कानून का समर्थन किया था।
साल भर में देश में ऐसा क्या बदलाव आ गया कि मोदी सरकार ने इस कानून को धता बताने की ठान ली? संबंधित विधेयक संसद में लंबे विचार-विमर्श के बाद आम राय से पारित हुआ था। यह किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों की भी जीत थी, जो अंगरेजी हुकूमत के दौरान बने भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की मांग करते आ रहे थे। लेकिन देश में बनी इतनी व्यापक सहमति को मोदी सरकार ने एक झटके में पलट दिया। वह भी अध्यादेश के जरिए। संविधान में अध्यादेश का प्रावधान आपातकालीन जरूरत के लिए है, जब संसद का सत्र न चल रहा हो। पर सरकार ने संसद का पिछला सत्र बीतते ही अध्यादेश जारी कर दिया। नए साल की पूर्व-संध्या पर। नए वर्ष का कैसा उपहार सरकार ने किसानों को दिया? भूमि अधिग्रहण के लिए जमीन के मालिकों की सहमति के जो प्रावधान थे उन्हें अध्यादेश के जरिए हटा दिया। यही नहीं, तेरह अन्य कानूनों में भी संशोधन करके जबरन अधिग्रहण का दायरा काफी बढ़ा दिया। कानून में बहुफसली जमीन न लेने की बात थी। वह भी हटा दी गई। इस तरह अध्यादेश ने अत्यधिक अधिग्रहण और जबरन अधिग्रहण का ही रास्ता साफ किया है।
विडंबना यह है कि पिछले दिनों मोदी ने ‘स्वस्थ धरा तो खेत हरा’ का नारा दिया है, और मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की है, ताकि खेती की जमीन की उर्वरा-शक्ति बचाई और बढ़ाई जा सके। लेकिन कृषियोग्य भूमि को बचाने की वास्तव में उन्हें कितनी फिक्र है, यह उन्होंने अपने अध्यादेश से बता दिया है। इसी के साथ उन्होंने यह भी जताया है कि संसदीय प्रक्रिया में उनकी कितनी आस्था है। आम राय से बने भूमि अधिग्रहण कानून को अध्यादेश के जरिए उलटी दिशा में ले जाने के साथ ही उन्होंने कुछ ही महीनों में अध्यादेशों की झड़ी लगा दी। इन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी तो मिल गई, पर राष्ट्रपति ने अपनी अप्रसन्नता के संकेत भी दिए। भूमि अधिग्रहण के अलावा जीएम फसलों और स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लेकर भी भाजपा ने ‘यू टर्न’ ले लिया है। अपने घोषणापत्र में उसने इस समिति की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया था, जिसमें कहा गया है कि किसानों को उपज की लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिलना चाहिए। पर अब भाजपा की निगाह में यह व्यावहारिक नहीं है! क्या उसे इस वादे की याद दिलाने के लिए भी आंदोलन की जरूरत पड़ेगी!
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