राष्ट्रपति ने एक बार फिर केंद्र सरकार को संकेत दिया है कि वह बढ़ती असहिष्णुता को रोके। उनके साथ-साथ रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा कि देश में तरक्की के लिए आपसी सौहार्द और सहिष्णुतापूर्ण माहौल जरूरी है। जब से केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, कुछ हिंदुत्ववादी संगठन बहुत उग्र तरीके से घृणा और हिंसा की राजनीति में जुट गए हैं। इसके चलते मुसलिम समुदाय के लोगों में भय व्याप्त है। मगर केंद्र सरकार इसे रोकने का कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठा रही।

कई बार हिंसक घटनाओं के बाद वह यह तर्क देकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश भी कर चुकी है कि कानून-व्यवस्था राज्यों का मसला है, इसलिए उन्हें ऐसी घटनाओं पर काबू पाने का प्रयास करना चाहिए। मगर यह छिपी बात नहीं है कि ये तमाम हिंदुत्ववादी संगठन भाजपा के आनुषंगिक संगठन के रूप में काम करते रहे हैं। भाजपा की नीतियों को न सिर्फ पोसते-प्रोत्साहित करते, बल्कि उनके निर्धारण में भी हस्तक्षेप करते रहे हैं। अनेक राज्यों में जहां भाजपा की सरकारें हैं, हिंदुत्व का एजेंडा किस प्रकार प्रभावी रूप में लागू है, यह भी छिपी बात नहीं है। केंद्र सरकार का रवैया भी उससे अलग नजर नहीं आता। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष इन संगठनों के प्रति नरम रुख अपनाए रहते हैं। उन्होंने कुछ मौकों पर इन्हें संयम का पाठ पढ़ाने की कोशिश जरूर की, पर वह स्वर इतना दबा हुआ था कि उसका कोई असर नजर नहीं आया। इसी का नतीजा है कि
लेखकों-कलाकारों-इतिहासकारों-वैज्ञानिकों ने विरोध का मोर्चा खोल दिया। सम्मान वापसी और जगह-जगह विरोध प्रदशर्नों का सिलसिला जारी है। अगर सरकार ने इस स्थिति पर काबू पाने का कोई व्यावहारिक उपाय नहीं किया तो उसके लिए अपने विकास के एजेंडे को आगे बढ़ा पाना कठिन बना रहेगा।

पिछले साल गणतंत्र दिवस के मौके पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी जाते-जाते कहा था कि अगर भारत सरकार अपने विकास कार्यक्रमों को लेकर संजीदा है तो उसे देश में सहिष्णुता और आपसी भाई-चारे का माहौल कायम करना होगा। तब नरेंद्र मोदी सरकार उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और अपने पक्ष में सफाई देने में जुट गई थी, बजाय यह समझने के कि अगर कोई समुदाय यहां खुद को असुरक्षित महसूस करता है, तो विकास का पहिया गतिमान नहीं रह सकता। तब से स्थितियां और बिगड़ी हैं। भले प्रधानमंत्री विदेशों में यात्रा करके प्रत्यक्ष निवेश जुटाने का अथक प्रयास कर रहे हों, पर उसका तब तक कोई सार्थक नतीजा नहीं निकल सकता, जब तक कि यहां के समाज में शांति नहीं होगी। ऐसे माहौल में निवेशक भी भयमुक्त नहीं रह पाते।

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की चिंता स्वाभाविक है। महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। कई क्षेत्रों में उत्पादन की दर घटी है। निर्यात की बेहतर स्थितियां नहीं बन पा रहीं। रोजगार के नए अवसर सृजित करना कठिन बना हुआ है। फिर भी हैरानी की बात है कि नरेंद्र मोदी सरकार घृणा और हिंसा की राजनीति पर विराम लगाने को लेकर गंभीरता दिखाने के बजाय इसके विरोध में उठने वाली आवाज को विपक्षी खुराफात बता कर आंखें बंद कर लेती है। नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा ने जो सपने जगाए थे, वे इस कोलाहल में शायद ही पूरे हो पाएंगे। आखिर सरकार का मकसद सामाजिक विद्वेष फैलाने वालों को संरक्षण देना नहीं है, तो उसे उनके खिलाफ कठोर कदम उठाने से गुरेज क्यों होना चाहिए।

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