जम्मू-कश्मीर आतंकवाद के चलते दशकों से जब-तब सुर्खियों में रहता आया है। लेकिन पिछले हफ्ते एक ऐसीघटना हुई, जो गुमराह होकर आतंकवादी संगठनों की गिरफ्त या प्रभाव में आ चुके युवकों को नई राह दिखा सकती है। कुछ दिन पहले लश्कर-ए-तैयबा में शामिल हुए कॉलेज छात्र और फुटबॉलर अरशिद माजिद खान ने सुरक्षा बलों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यों तो अफवाह उड़ाने और तनाव फैलाने में सोशल मीडिया की भूमिका किसी से छिपी नहीं है, पर इस मामले में उसका एक बहुत सकारात्मक इस्तेमाल देखने में आया। सोशल मीडिया पर अपनी मां और पिता की घर लौटने की अपील वाला वीडियो देखने के बाद बीस वर्षीय अरशिद ने बीते गुरुवार की आधी रात को सेना के शिविर में पहुंच कर आत्मसमर्पण कर दिया। सामान्य जीवन में अपने इकलौते बेटे की वापसी से माता-पिता को कितनी खुशी हुई होगी, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अरशिद और उसके परिवार की जिंदगी तबाह होने से बच गई यह संतोष का विषय तो है ही, इस वाकये ने यह भी दिखाया है कि जम्मू-कश्मीर में स्थायी शांति का एक शांतिपूर्ण रास्ता भी हो सकता है। यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि अरशिद के आत्मसमर्पण की सराहना करते हुए सेना ने मुख्यधारा में उसकी सुगम वापसी का भरोसा दिलाया है।

दक्षिण कश्मीर में मानवीय स्पर्श के साथ लोगों से संपर्क बनाने में जुटे मेजर जनरल बीएस राजू ने कहा है कि अरशिद पर कोई आरोप नहीं लगाया जाएगा, उसे अपने करियर और अपनी खेल-प्रतिभा को निखारने का पूरा मौका दिया जाएगा। यह आश्वासन कीमती है, क्योंकि एक बार हिंसा का रास्ता पकड़ लेने के बाद वापसी आसान नहीं होती। गुमराह हुए युवक को लगता है कि वह लौट भी आए, तो पुलिस या सुरक्षा बल उसे जीने नहीं देंगे। बीएस राजू ने यह भी कहा है कि आतंकवाद से जुड़ने के बाद भले ही कुछ युवाओं ने छोटे-मोटे अपराध किए हों, मैं उन्हें आश्वस्त करता हूं कि उनके प्रति नरम रुख रखा जाएगा। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी अरशिद की वापसी पर खुशी जताई है। दूसरी तरफ लश्कर-ए-तैयबा ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि अरशिद की मां के अनुरोध को देखते हुए उसे जाने दिया गया। अगर मान लें कि लश्कर का दावा सही है, यानी आत्मसमर्पण करने के अरशिद के फैसले की जानकारी उसे थी, फिर भी उसने न अड़ंगा लगाया न कोई खतरा पैदा किया, तब भी कई सवाल उठते हैं।

बाकी उन मांओं की फिक्र लश्कर को क्यों नहीं है, जिनके बच्चों को वह आतंकवाद का प्रशिक्षण देकर मरने के लिए छोड़ देता है? आखिर दूसरे किशोर या युवक भी अपने माता-पिता की रजामंदी से तो लश्कर में शामिल नहीं हुए होंगे! उनके परिवार भी रोये-बिलखे होंगे, उनके लौट आने की दुआ करते होंगे, और अगर वे सचमुच किसी दिन लौट आएं, तो उन्हें बेहद खुशी होगी। बहरहाल, लश्कर से उनके मुक्त हो पाने की उम्मीद करना, लश्कर के इतिहास को देखते हुए, बेकार है। पर हमें सोचना होगा कि घाटी के लोगों का भरोसा कैसे जीता जाए। इस साल के स्वाधीनता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि कश्मीर समस्या का हल न गोली से निकलेगा न गाली से, हल निकलेगा कश्मीरियों को गले लगाने से। विडंबना यह है कि उनकी पार्टी के ही बहुत-से लोग इससे विपरीत भाषा बोलते रहे हैं।