तमिलनाडु द्रविड़ आंदोलन की भूमि रहा, जिसने सामाजिक रूढ़ियों और कुप्रथाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर लोगों को झकझोरा और तार्किक सोच-विचार की मशाल प्रज्वलित की। आज यह देख कर बेहद अफसोस होता है कि इस राज्य में ऐसी ताकतें सिर उठा रही हैं जो अपनी जिद को हिंसा के सहारे मनवाना चाहती हैं, अभिव्यक्ति की आजादी में जिनका विश्वास नहीं है, जिन्हें प्रगतिशीलता और खुलापन रास नहीं आते। ज्यादा वक्त नहीं बीता, जब तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन को अपने उपन्यास के कारण एक समुदाय का कोपभाजन बनना पड़ा। मुरुगन को तरह-तरह की धमकियां मिलती रहीं और वे प्रताड़ना का शिकार हुए। आजिज आकर उन्होंने भारी मन से अपनी लेखकीय मृत्यु की घोषणा कर दी, कहा कि वे भविष्य में कुछ नहीं लिखेंगे, अपने प्रकाशकों से अनुरोध किया कि उनकी किताबें वे बाजार से वापस ले लें। फिर, पिछले महीने एक और तमिल लेखक के साथ भी ऐसा ही हुआ। पी मुरुगेसन की एक कहानी से खफा कुछ लोगों ने उनके घर से उन्हें अगवा कर लिया, जंगल में ले गए और तब तक मारते-पीटते रहे जब तक एक पत्रकार की सूचना पर पुलिस वहां नहीं पहुंच गई। अलबत्ता मुरुगन के विपरीत, मुरुगेसन ने आगे भी लिखते रहने का संकल्प जताया है।

असहिष्णुता की प्रवृत्तियों के बढ़ने की सबसे ज्यादा कीमत लेखकों और बौद्धिकों को चुकानी पड़ रही है। ताजा मामला एक टीवी चैनल पर हुए हमले का है। हिंदू इलाइगनार सेना नाम के संगठन से वास्ता रखने वाले हमलावरों ने चैनल के दफ्तर पर पेट्रोल-बम फेंके और रफूचक्कर हो गए। संस्कृति के स्वयंभू झंडाबरदार इस संगठन ने कहा है कि चैनल पर ‘मंगलसूत्र’ पर होने वाली बहस के विरोध में यह हमला किया गया। इससे पहले हिंदू मुन्न्नानी संगठन और भाजपा के कई नेताओं ने भी चैनल के इस कार्यक्रम के विरोध में बयान दिए थे। वह कार्यक्रम रद्द कर दिया था, शायद विवाद को देखते हुए चैनल ने यह फैसला किया हो। इसके बावजूद उसके दफ्तर पर हमला हुआ। संसद में यह मामला उठा तो अन्नाद्रमुक के सदस्यों ने एतराज जताते हुए कहा कि इस पर यहां विचार नहीं किया जा सकता। मगर यह कानून-व्यवस्था का सामान्य मामला नहीं है। जिस तरह राज्य में एक के बाद एक अभिव्यक्ति पर हमले हो रहे हैं, उस पर संसद में जरूर बहस होनी चाहिए। इसलिए भी कि राज्य सरकार का रवैया इन घटनाओं पर चुप्पी साध लेने का रहा है। यही नहीं, मुरुगन और मुरुगेसन की प्रताड़ना में तो पुलिस अधिकारी हमलावरों के प्रति नरम दिखे।

दीमापुर की घटना में, जिसमें बलात्कार के एक संदिग्ध आरोपी को जेल से बाहर खींच कर पीट-पीट कर मार दिया गया, भीड़ के आगे घुटने टेकने के लिए पुलिस की निंदा हुई है। पर भीड़ को मनमानी करने देने की दोषी तमिनाडु सरकार भी है। संसद में और संसद के बाहर भी ऐसी घटनाओं पर भी राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए, क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरे दूसरी जगहों पर भी बढ़ रहे हैं। महाराष्ट्र में अगस्त 2013 में नरेंद्र दाभोलकर और हाल में गोविंद पानसरे की हत्या इसका उदाहरण है। भारत बहुत विविधता वाला देश है; विविधता धर्म, समुदाय और रीति-रिवाजों की तो है ही, मान्यताओं और विचारों की भी है। अगर हिंसा से किसी का मुंह बंद करने की छूट दी जाएगी, तो न सृजन की स्वतंत्रता रहेगी न विचार की। सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे संविधान से मिले अभिव्यक्ति के नागरिक अधिकार की रक्षा करें।

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