आम आदमी पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति यानी पीएसी से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को बाहर किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। पीएसी से इन दो वरिष्ठ नेताओं को क्यों हटाया गया इस बारे में पार्टी कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सकी है। यह भी गौरतलब है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी के ग्यारह सदस्यों ने उन्हें हटाने के लिए वोट दिया, तो आठ सदस्यों ने उन्हें बनाए रखने के पक्ष में। यानी इसे कार्यकारिणी की आम राय का फैसला नहीं कहा जा सकता। हटाने के तरीके को लेकर इससे भी गंभीर सवाल दूसरा है। कार्यकारिणी के सदस्य मयंक गांधी ने खुलासा किया है कि अरविंद केजरीवाल कह चुके थे कि यादव और भूषण के पीएसी में रहते हुए संयोजक के तौर पर वे काम नहीं कर पाएंगे। उनकी जिद को देखते हुए यादव और भूषण चाहते थे कि पीएसी का पुनर्गठन किया जाए, और वैसी सूरत में वे उम्मीदवारी पेश नहीं करेंगे। अगर पुनर्गठन के लिए पार्टी तैयार न हो तो वे पीएसी की बैठकों से अलग रहने को राजी थे, ताकि केजरीवाल कोई दिक्कत महसूस न करें। यादव और भूषण बस यह चाहते थे कि उन्हें पीएसी से बर्खास्त न किया जाए। मगर वही हुआ।

ऐसा लगता है कि केजरीवाल और उनके करीबियों ने जो तय कर रखा था उससे इतर किसी विकल्प पर वे सोचना नहीं चाहते थे। इस तरह उन्होंने यही जताया है कि वे अपनी मनमानी चलाना चाहते हैं। कार्यकारिणी की ताजा बैठक से एक रोज पहले केजरीवाल ने ट्वीट करके कहा था कि पार्टी में जो कुछ चल रहा है उससे वे बहुत आहत महसूस करते हैं। खबर थी कि वे खांसी के इलाज के लिए दिल्ली से बाहर जाने वाले हैं और कार्यकारिणी की बैठक में शिरकत नहीं करेंगे। कार्यकारिणी की बैठक में तो वे शामिल नहीं हुए, पर दिल्ली में ही मौजूद थे और अपने करीबी साथियों से पल-पल संपर्क में रहे। क्या सब कुछ उनके निर्देशानुसार हो रहा था? कार्यकर्ताओं के नाम अपने ब्लॉग पर लिखे मयंक गांधी के पत्र से यह शक और गहरा हुआ है।

केजरीवाल दिल्ली में मौजूद थे, तो वे कार्यकारिणी की बैठक में क्यों नहीं आए? जब उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की तब उन्हें खांसी की पुरानी तकलीफ के अलावा बुखार भी था। इसलिए बैठक में न आने के पीछे स्वास्थ्य संबंधी वजह नहीं रही होगी। जो कुछ चल रहा था उससे वे आहत महसूस कर रहे थे, पर उस वक्त न दिल्ली से बाहर एकांत में गए न सीधे संवाद की पहल की। यह रवैया इसलिए और अखरता है कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने दो विकल्प सुझा कर विवाद पर विराम लगाने का रास्ता साफ कर दिया था। पीएसी के अलावा बाकी जो मुद््दे रह जाते उन पर आगे बातचीत चलती रहती।

विवाद की जड़ में कोई गंभीर आरोप-प्रत्यारोप नहीं रहा है। अगर इस स्तर पर भी शिकायतें और गलतफहमियां दूर नहीं की जा सकतीं, तो पार्टी इससे मुश्किल स्थितियों का सामना कैसे करेगी? अब कहा जा रहा है कि यादव और भूषण को नई जिम्मेदारियां दी जाएंगी। लेकिन इतने से बात खत्म नहीं हो जाती। अगर यह धारणा बनी रहेगी कि केजरीवाल इन दोनों नेताओं को राह का रोड़ा मानते हैं, तो वे अपनी नई भूमिकाओं में सहजता से शायद ही काम कर पाएं। इसलिए पार्टी को आंतरिक लोकतंत्र और कार्य-संस्कृति के सवालों पर गंभीरता से सोचना होगा। सारे विवाद के दौरान आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने अपनी चिंता का इजहार किया है। वे चाहते हैं कि पार्टी एकजुट रहे, इससे जो आशाएं जगी हैं वे बनी रहें। पर एकजुटता व्यक्ति-केंद्रित नहीं, सरोकारों की बुनियाद पर होनी चाहिए।

 

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