यह देर से ही सही, पर दुरुस्त कदम है। दिवाला एवं ऋण शोधन संहिता (आइबीसी) विधेयक बीते शुक्रवार को लोकसभा में पारित हो गया। हालांकि कई विपक्षी सदस्यों ने विधेयक के कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए, पर मूल रूप से विधेयक से सहमति जताई। विपक्ष के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि विधेयक पर राज्यसभा की भी मुहर लग जाएगी और जल्दी ही इसके कानूनी शक्ल अख्तियार करने का रास्ता साफ हो जाएगा। विधेयक का उद््देश्य एनपीए की लगातार बढ़ती गई समस्या से पार पाना है। इसमें दो राय नहीं कि विधेयक का मकसद नेक है, और यही कारण है कि जब नवंबर में आइबीसी अध्यादेश लाया गया था तो उस पर विपक्ष की तरफ से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं हुई थी, जैसा किअध्यादेश का रास्ता चुनने पर सरकार को कई बार काफी विरोध का सामना करना पड़ा है। पिछले हफ्ते लोकसभा में पारित हुआ विधेयक नवंबर में जारी किए गए अध्यादेश की जगह लेगा। अध्यादेश इसलिए लाना पड़ा था क्योंकि बहुत-से मामले लंबित थे और इस बारे में एक समय-सीमा तय कर दी गई थी। सरकार का दावा है कि विधेयक के कानून बन जाने के बाद जान-बूझ कर ऋण नहीं चुकाने वाले लोग परोक्ष रूप से भी खुद की परिसंपत्तियों की बोली नहीं लगा सकेंगे। प्रस्तावित परिवर्तनों से विवादित परिसंपत्तियों के लिए खरीदारों का चयन करने की प्रक्रिया को सरल बनाने में मदद मिलेगी।

दरअसल, इन्हीं सब प्रयोजनों से सरकार ने विधेयक में अपात्रता संबंधी नए मापदंड शामिल किए हैं। जैसा कि वित्तमंत्री अरुण जेटली ने विधेयक पर लोकसभा में हुई बहस का जवाब देते हुए कहा, कि अगर ऐसा न किया जाता, यानी पात्रता की नई शर्तें न जोड़ी जातीं तो जिन्होंने चूक की, वे कुछ धन देकर फिर से प्रबंधन और व्यवस्था में लौट आते। लेकिन नए मापदंडों पर कुछ सवाल भी उठे हैं या कुछ अंदेशे जताए गए हैं। मसलन, ऋणशोधन समाधान प्रक्रिया के लिए योग्यता के प्रावधान को इतना सख्त कर देने से आवेदकों की संख्या में बहुत कमी आ सकती है। फिलहाल ऋणशोधन प्रक्रिया में समाधान योजना की जांच करनी पड़ती है। नए प्रावधान के कारण बोली लगाने वालों की भी जांच करनी पड़ेगी। इससे नीलामी में दिक्कत आ सकती है, यह भी हो सकता है कि संपत्ति की वास्तविक कीमत से कम कीमत मिले।

सदन में हुई चर्चा का जवाब देते हुए वित्तमंत्री ने कहा कि एनपीए विरासत में मिली समस्या है। यानी एनपीए के लिए पिछली सरकारें ही दोषी हैं। गुजरात चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री ने भी इसी आशय का बयान दिया था। क्या इस मामले में मौजूदा सरकार का दामन पाक-साफ है? आंकड़े उलटी कहानी कहते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए 2012-13 में 3.84 फीसद, 2013-14 में 4.72 फीसद, 2014-15 में 5.43 फीसद था, जो कि 2015-16 में 9.83 फीसद और 2016-17 में 12.47 फीसद हो गया। एनपीए में बढ़ोतरी का यह क्रम सारा दोष पिछली सरकारों पर मढ़ कर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेने की सियासी चतुराई की हवा निकाल देता है। तथ्य यह भी है कि एनपीए के लिए छोटे कर्जदार नहीं, बल्कि बहुत बड़ी-बड़ी राशियों के बकाएदार जिम्मेवार हैं, जिनके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई, बल्कि जिन्हें उनके कर्जों का ‘पुनर्गठन’ कर राहत दी जाती रही है।