कांगो की राजधानी किनशासा में भारतीय समुदाय की कुछ दुकानों को निशाना बनाए जाने और उन पर फायरिंग की घटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके पीछे क्या वजह होगी यह कोई रहस्य का विषय नहीं है। खुद भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि किनशासा में हुआ यह हमला दिल्ली में हुई कांगो के एक युवक की हत्या को लेकर उपजे रोष का परिणाम है। दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में पिछले हफ्ते तीन लोगों ने कहासुनी के बाद उस युवक को पीट-पीट कर मार डाला था। इस घटना की कांगो में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई ही, नई दिल्ली में सभी अफ्रीकी देशों के राजदूतों ने अपना विरोध दर्ज कराया। यह मामला ऐसे वक्त उभरा जब भारत सांस्कृतिक संबंध परिषद की तरफ से दिल्ली में अफ्रीका दिवस का आयोजन हो रहा था।
अफ्रीकी राजदूतों ने अफ्रीका दिवस के आयोजन में शिरकत न करने का भी एलान कर दिया था, पर बाद में विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह के मनाने पर उन्होंने बहिष्कार का अपना निर्णय वापस ले लिया और समारोह में शामिल हुए। इस तरह भारत सरकार के निमंत्रण की लाज तो रह गई, पर सवाल है कि उसे जो कूटनीतिक नुकसान हुआ है उसकी भरपाई कैसे होगी। देर से ही सही, कुछ साल पहले भारत ने अफ्रीका से अपना संवाद और संबंध बढ़ाने का फैसला किया और सालाना भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन की शुरुआत हुई। मोदी सरकार ने शिखर सम्मेलन का दायरा और बढ़ा दिया, पिछले साल अक्तूबर में हुए सम्मेलन में सभी अफ्रीकी देशों के प्रतिनधि शामिल हुए थे। अफ्रीका महाद्वीप में भारत की पहुंच बढ़ाने की इस प्रक्रिया को, फौरी तौर पर ही सही, झटका लगा है। अफ्रीका दिवस के अवसर पर सभी अफ्रीकी राजदूतों ने एक स्वर से भारत में अफ्रीकियों के खिलाफ रंगभेद खत्म करने की मांग उठाई। भारत हमेशा रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाता आया है। यह गांधी की भी विरासत है और उपनिवेशवाद के खिलाफ हमारे राष्ट्रीय संघर्ष की भी। ऐसे में खुद भारत में रंगभेद की शिकायत उसकी छवि को नुकसान पहुंचाती है। क्या यह शिकायत सही है?
वसंतकुंज की घटना को एक अलग-थलग आपराधिक घटना के रूप में देखा जाए, या रंगभेद से भी इसका कोई संबंध हो सकता है? दरअसल, इससे पहले बंगलुरु में एक तंजानियाई छात्रा के साथ भीड़ के बर्बर सलूक, बंगलुरु में ही एक अश्वेत कार चालक की पिटाई, जलंधर में बुरुंडी के एक युवक की हत्या, पिछले साल दिल्ली में तीन नाइजीरियाई छात्रों पर हमले जैसी कई घटनाएं हुई हैं जिनके चलते भारत में पढ़ने या किसी और काम से आए अफ्रीकियों में असुरक्षा तथा रंगभेदी भेदभाव का अहसास पनपा है। उनकी एक सामान्य शिकायत यह भी है कि ऐसे सभी मामलों में स्थानीय पुलिस ने पीड़ितों को बचाने का कोई जतन नहीं किया, वह मूकदर्शक बनी रही।
इस सिलसिले में दिल्ली के खिड़की इलाके में आप सरकार के एक तत्कालीन मंत्री के ‘छापे’ और नाइजीरियाई लोगों को कैंसर के समान बताने के गोवा के एक मंत्री के बयान को भी जोड़ सकते हैं। अलबत्ता दिल्ली, मुंबई, बंगुलुरु, हैदराबाद आदि महानगरों में अपने खिलाफ भद््दी टिप्पणियां किए जाने, तंग किए जाने और असुरक्षा की आम भावना की शिकायत पूर्वोत्तर के लोग भी करते रहे हैं। तो क्या, अधिकांश भारतीय समाज भी किसी हद तक ‘नस्ल-भेद’ की मानसिकता से ग्रस्त है, और यह अनुमान से कहीं अधिक है? जो हो, अफ्रीका से कूटनीतिक और व्यापारिक रिश्ते बढ़ाना काफी नहीं है; भारत में अफ्रीकियों की सुरक्षा हर हाल में सुनिश्चित की जानी चाहिए। फिर, कुछ पहल सामाजिक स्तर पर भी करने की जरूरत है।