करीब चार महीने पहले बांग्लादेश में तख्तापलट और नई सरकार बनने के बाद भारत के विदेश सचिव पहली बार वहां की यात्रा पर गए। मगर अफसोस कि उनकी यह यात्रा पड़ोसी देश के साथ कूटनीतिक संबंधों से जुड़े मसलों पर बातचीत से ज्यादा बांग्लादेश की अल्पसंख्यक आबादी के खिलाफ वहां के लोगों और सरकार के रवैये पर चिंता की वजह से हुई, ताकि स्थिति में कुछ सुधार आ सके। यह छिपा नहीं है कि शेख हसीना सरकार गिरने के बाद से ही बांग्लादेश में किसी न किसी बहाने अल्पसंख्यकों के जीवन को मुश्किल बनाने का प्रयास किया जा रहा है, कई जगहों पर खुली हिंसा की खबरें भी आईं।

अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस मसले पर अमेरिका तक ने चिंता जताई कि बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, वह अनुचित है और उस पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। मगर चौतरफा आलोचना के बावजूद फिलहाल बांग्लादेश की सत्ता संभाल रही सरकार ने उपद्रवी तत्त्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना और स्थिति को संभालना जरूरी नहीं समझा है, ताकि वहां हिंदू पहचान वाले लोग और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें।

भारत ने जताई चिंता

गौरतलब है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमले की घटनाओं के लगातार जारी रहने पर भारत ने चिंता जताई और इसके बाद भी जब वहां की सरकार की ओर से अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं देखी गई, तब भारत के विदेश सचिव को वहां जाना पड़ा। सोमवार को उन्होंने बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस, विदेश मामलों के सलाहकार तौहिद हुसैन और विदेश सचिव मोहम्मद सशीम उद्दीन से मुलाकात की।

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बैठक में भारत ने जहां दोनों देशों के बीच राजनयिक और आर्थिक संबंधों पर बातचीत की, वहीं बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का मुद्दा उठाया। विडंबना है कि जो काम बांग्लादेश सरकार को अपनी ओर से करना चाहिए था, उसके लिए उसके एक पड़ोसी देश को औपचारिक रूप से ध्यान दिलाने की जरूरत पड़ रही है।

हालात की गंभीरता को नजरअंदाज कर रही है बांग्लादेश सरकार

आखिर वहां के अल्पसंख्यक भी बांग्लादेश के नागरिक हैं और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है। विडंबना है कि मानवीयता के लिहाज से भारत की पहलकदमी को गंभीरता से लेने के बजाय बांग्लादेश सरकार अब भी अपने दायित्व को लेकर लापरवाह नजर आ रही है।

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वहां के विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में जिस तरह अल्पसंख्यकों पर हमले और उससे उपजी स्थिति को ‘बांग्लादेश का आंतरिक मामला’ बताया गया है, उससे साफ है कि पीड़ित समुदायों की सुरक्षा का भरोसा देने के बावजूद सरकार हालात की गंभीरता को नजरअंदाज कर रही है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगस्त की शुरूआत में एक अराजक बगावत के बाद बांग्लादेश में मौजूदा सरकार अस्तित्व में आई है और उसके सामने एक ओर आंतरिक उथल-पुथल से निपटने की जटिल चुनौती खड़ी है, तो दूसरी ओर उसे नई परिस्थितियों में अपने अंतरराष्ट्रीय कूटनयिक संबंधों को भी सहज बनाना है।

अगर वह देश के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और उनके मानवाधिकार सुनिश्चित नहीं कर पाती है, तो वहां एक गंभीर अराजकता पैदा हो सकती है। ऐसे में भारत की चिंता बांग्लादेश के लिए एक जरूरी सलाह की तरह है, जिस पर उसे बिना देर किए गौर करना चाहिए। भारत ने जिस तरह एक लोकतांत्रिक, स्थिर, शांतिपूर्ण, प्रगतिशील और समावेशी बांग्लादेश के लिए समर्थन देने की बात कही है, वह परस्पर भरोसे पर आधारित है और यही दोनों देशों के हित में है।