नई भू-राजनीतिक परिस्थितियों में उथल-पुथल के बीच अमेरिका जैसा देश जहां अपने हित में अन्य देशों पर मनमाने फैसले थोपने की कोशिश में है, तो स्वाभाविक ही भारत के सामने भी अपना हित कायम रखने की चुनौती खड़ी हुई है। यही वजह है कि पिछले कुछ समय से अलग-अलग देशों पर शुल्क लगा कर व्यापार नीति को प्रभावित करने की अमेरिकी कोशिश के समांतर भारत ने अपने लिए वैकल्पिक रास्ते तैयार करना शुरू कर दिया है।

इस क्रम में रूस और चीन से नए सिरे से संवाद कायम करने और विवादित मसलों को सुलझा कर संबंधों के नए आयाम पर विचार करने के लिए भारत ने कूटनीति के मोर्चे पर जो रुख अपनाया है, उसे इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। पिछले दिनों भारत ने रूस सहित अन्य कुछ देशों में कूटनीतिक पहल के जरिए यह संदेश दिया है कि अमेरिका से संवाद के रास्ते भले ही खुले हैं, लेकिन उसके रवैये का सामना करने के लिए भारत तैयार है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान और चीन की यात्रा को भी दरअसल नए विकल्प खोजने की कोशिश की एक कड़ी के तौर पर देखा जा सकता है। अपनी जापान यात्रा के बाद प्रधानमंत्री मोदी चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भी भाग लेंगे।

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दरअसल, अमेरिका की ओर से शुल्क से संबंधित नई नीति थोपने और इस संबंध में भारत के तर्कों को खारिज करने के बाद अब स्थिति यही है कि भारत इसका सामना करने के लिए नए विकल्प तैयार करे। इस लिहाज से देखें तो जापान और चीन भी उन देशों की सूची में हैं, जिन पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की शुल्क कूटनीति की मार पड़ी है। इसके अलावा भी जो देश ट्रंप के इस रवैये के दायरे में आए हैं, उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि अमेरिका के इस राह को अपनाने के क्या कारण हैं और इसके जरिए वह क्या हासिल करना चाहता है।

अमेरिकी शुल्क नीति के लागू होने के बाद चीन और जापान ऐसे देश हैं, जिनका व्यापार भी भारत की तरह ही प्रभावित हो सकता है। मगर यह स्थिति तभी ज्यादा बिगड़ती है, जब निर्यात के लिए मुख्य रूप से किसी एक देश पर निर्भरता हो। यही वजह है कि पच्चीस से लेकर पचास फीसद तक शुल्क थोपे जाने के बाद इससे प्रभावित होने वाले सभी देशों के सामने नई स्थिति से निपटने के लिए नए उपायों पर विचार जरूरी हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी की जापान और चीन यात्रा को इसी कूटनीति को साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है।

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निश्चित रूप से पिछले कुछ वर्षों से चीन के साथ भारत के जैसे संबंध रहे हैं, उसमें हर स्तर पर सतर्कता बरतने की जरूरत होगी। यह छिपा नहीं है कि सीमा पर तनाव से लेकर गलवान में टकराव तक और फिर अरुणाचल प्रदेश में नाहक विवाद खड़ा करके चीन भी सैन्य मोर्चे पर अपनी मनमानी चलाना चाहता है। मगर अब अमेरिकी शुल्क नीति की जद में आने के बाद उसके लिए भी आर्थिक मोर्चे पर नए हालात से निपटना एक चुनौती है।

वहीं, जापान को अमेरिका के करीब माना जाता रहा है, लेकिन उसकी नई नीति की चपेट में वह खुद भी है। स्वाभाविक है कि जापान और चीन भी अमेरिकी शुल्क से उपजी स्थिति का सामना करने के लिए नए विकल्प खोजेंगे। अब अगर भारतीय प्रधानमंत्री की जापान और चीन की यात्रा के बाद किसी व्यापक आर्थिक सहयोग पर सहमति बनती है, तब यह नया कूटनीतिक मोर्चा होगा, जिसके जरिए अमेरिकी शुल्क की वजह से खड़ी व्यापार युद्ध की स्थिति का सामना करने की कोशिश होगी।