विदेशमंत्री सुषमा स्वराज की पाकिस्तान यात्रा में दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता के लिए बनी सहमति से एक बार फिर अमन की उम्मीद जगी है। मुंबई हमले के बाद इस दिशा में बातचीत का सिलसिला रुक गया था। यह नरेंद्र मोदी सरकार के लिए भी एक उपलब्धि है, क्योंकि विपक्षी दल लगातार आरोप लगा रहे थे कि उसके पास पाकिस्तान को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं है। मगर जिस नाटकीय ढंग से यह वातावरण बना है, उसे लेकर स्वाभाविक ही कुछ सवाल बने हुए हैं। कुछ महीने पहले तक पाकिस्तान इस बात पर अड़ा हुआ था कि जब तक कश्मीर मसले का हल नहीं निकाला जाता, वह किसी भी दूसरे मुद्दे पर बातचीत को आगे नहीं बढ़ाएगा। इधर भारत का कहना था कि पहले आतंकवाद के मसले का हल निकालना जरूरी है।

इसी तनातनी के चलते ऊफा में बनी सहमति के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू होते-होते रह गया था। मगर पेरिस में नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ ने आपस में बातचीत की और तुरंत बैंकाक में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक आयोजित हो गई। उसके दो दिन बाद ही विदेशमंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान पहुंचीं और समग्र वार्ता की सहमति बन गई। विदेश मंत्रालय ने अगले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा की भी घोषणा कर दी। संभव है इस घटनाक्रम के पीछे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का दबाव हो। पिछले कुछ समय से जिस तरह आतंकवादी घटनाओं के चलते इससे निपटने की रणनीति बन रही है, उसमें पाकिस्तान पर भी दबाव बना हो। जो हो, बातचीत का यह सिलसिला शुरू होना दोनों देशों के लिए बेहतरी का संकेत है।

मगर जिस हड़बड़ी में समग्र वार्ता की सहमति बनी है, उसी तरह इसे आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के आठ अहम मुद्दे हैं, जिन पर सहमति बनना जरूरी है। उनमें कश्मीर और आतंकवाद के मसले तो हैं ही, सरक्रीक, वुलर बांध, सियाचिन, मादक पदार्थों की तस्करी पर रोक, परमाणु अस्त्रों और सेना में कटौती और मैत्रीपूर्ण व्यवहार बनाए रखने की वचनबद्धता भी अहम मुद्दे हैं। पाकिस्तान लगातार इन मामलों में रोड़े अटकाता रहा है। उसके सामने सबसे बड़ी समस्या सेना और कट््टरपंथी ताकतों के हस्तक्षेप से पार पाना है। पहले भी अमेरिकी दबाव में उसने दिखावे के लिए कुछ आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया था, मगर उनके सरगना सरेआम घूमते रहे, दूसरे नाम से नया संगठन तैयार करके चरमपंथी गतिविधियों को संचालित करते रहे।

पाकिस्तानी सेना लगातार ताकतवर होती गई है और वहां की सियासत पर उसका दबदबा बढ़ा है। वह कभी नहीं चाहेगी कि पाकिस्तान भारत की किन्हीं शर्तों पर झुके। इसलिए सरक्रीक और सियाचिन से सेना हटाने के मामले में पाकिस्तान किस तरह तैयार होगा, कहना मुश्किल है। फिर कश्मीर मसला उसके लिए वार्ता विफल करने का सबसे कारगर नुस्खा रहा है। उसे आगे करके वह आसानी से कदम वापस खींच लेता रहा है। हुर्रियत से उसका मोह अकारण नहीं है। उस मोह को वह आसानी से त्याग देगा, दावा नहीं किया जा सकता। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय जिस तरह दोनों देशों के बीच आवाजाही बढ़ाने के प्रयास हुए, कारोबारी गतिविधियों में तेजी लाने की कोशिश हुई, बस और रेल सेवाएं बहाल की गर्इं, उससे काफी उम्मीदें जगी थीं। मगर पाकिस्तान ने उसे आगे नहीं बढ़ने दिया। इसलिए इन तमाम अनुभवों के मद्देनजर भारत को समग्र वार्ता की मेज पर जाने से पहले स्पष्ट रणनीति तैयार करने की जरूरत है।