खुदरा महंगाई अक्तूबर में बढ़ कर पिछले चौदह महीनों के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान से भी ऊपर, 6.2 फीसद दर्ज हुई। रिजर्व बैंक काफी समय से खुदरा महंगाई को चार फीसद पर लाने की कोशिश कर रहा है। इसीलिए छह बार से वह अपनी मौद्रिक नीति को यथावत रखते हुए रेपो रेट को साढ़े छह फीसद पर बनाए हुए है। हालांकि रिजर्व बैंक को अनुमान था कि अक्तूबर में खुदरा महंगाई कुछ बढ़ेगी, मगर छह फीसद से ऊपर चले जाने का उसे अनुमान नहीं था। इसकी वजह खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी बताई जा रही है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों के मुताबिक अक्तूबर महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खाने-पीने की चीजों की महंगाई 10.87 फीसद रही, जो कि पिछले पंद्रह महीनों में सबसे अधिक है। हालांकि त्योहारी मौसम होने के कारण औद्योगिक उत्पादन में कुछ बढ़ोतरी दर्ज हुई और वह 3.1 फीसद पर पहुंच गया है, जबकि अगस्त महीने में इसमें चिंताजनक गिरावट दर्ज हुई थी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि थोक और खुदरा महंगाई के बीच किस कदर अंतर और असंतुलन है।
खुदरा महंगाई की मार निम्न और मध्यम आयवर्ग पर
खुदरा महंगाई की मार सबसे अधिक निम्न और मध्यम आयवर्ग पर पड़ती है। रोजमर्रा उपयोग होने वाली वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी बहुत सारे लोगों के दैनिक उपभोग और उनके पोषण पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ती है। अनुमान है कि अभी कम से कम एक वर्ष तक खुदरा महंगाई के रुख में नरमी के आसार नहीं हैं। यानी बैंक दरों में बदलाव की आस लगाए लोगों को अभी और इंतजार करना पड़ेगा। रिजर्व बैंक का तर्क है कि बैंक दरें ऊंची रखने से महंगाई पर काबू पाने में काफी मदद मिली है। मगर पिछली छह मौद्रिक समीक्षाओं में इसका कोई उल्लेखनीय असर नजर नहीं आया है।
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दरअसल, सरकार तदर्थ उपायों से मुद्रास्फीति पर काबू पाने का प्रयास कर रही है। हकीकत यह है कि लोगों की क्रयशक्ति लगातार घटी है। रोजगार के अवसर सिकुड़ते गए हैं। घरेलू मांग और निर्यात घटने से औद्योगिक उत्पादन में भी उतार नजर आता है। इस तरह वहां भी रोजगार के अवसर छीज रहे हैं। लोगों के पास रोजगार नहीं होगा, तो उनकी क्रयशक्ति भी नहीं बढ़ेगी। क्रयशक्ति नहीं बढ़ेगी, तो बाजार में पूंजी का प्रवाह नहीं बढ़ेगा। ऊपर से, खाने-पीने की कीमतें आसमान छू रही हैं।
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खुदरा महंगाई बढ़ने के पीछे आमतौर पर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का तर्क दिया जाता है। यह ठीक है कि दुनिया में कई जगह संघर्ष चलने की वजह से तेल की कीमतों पर भी असर पड़ा है, मगर पिछले काफी समय से हमारे देश में इसका कोई खास दबाव नजर नहीं आ रहा। फिर, खाने-पीने की चीजों की कीमतें ऐसे मौसम में बढ़ रही हैं, जब बाजार में फसलों की भरपूर आवक रहती है। मौसमी फलों और सब्जियों की कीमतें भी आम आदमी की क्षमता से बाहर चली गई हैं।
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सच्चाई यह भी है कि आंकड़ों में जो महंगाई नजर आती है, धरातल पर उससे कहीं अधिक होती है। इसकी व्यावहारिक समीक्षा और उस पर कारगर कदम उठाने की पहल होनी चाहिए। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि एक तरफ ऊंची विकास दर की खुशियां मनाई जा रही हैं और दूसरी तरफ खाद्य पदार्थों की कीमतें आम लोगों की क्षमता से बाहर होती जा रही हैं।