जब पढ़ाई और परीक्षा में प्रदर्शन के दबाव की वजह से विद्यार्थियों के बीच आत्महत्या के बढ़ते मामले चिंता के केंद्र में आ गए हैं, ऐसे समय में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से एक बेहद जरूरी पहल की गई है। ‘उम्मीद’ नाम से तैयार अपने मसविदा दिशानिर्देशों में मंत्रालय ने कहा है कि बच्चों के बीच आत्महत्या की बढ़ती समस्या को रोकने के लिए ‘वेलनेस’ यानी आरोग्य टीम गठित की जाए और साथ ही अगर कोई विद्यार्थी आत्महत्या के जोखिम से जुड़ा कोई संकेत प्रदर्शित करता है तो उसकी तत्काल पहचान करके उसे ऐसी स्थिति से बाहर लाने में सहयोग किया जाए।
दरअसल, यह एक जटिल समस्या के रूप में चिह्नित किया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान पढ़ाई-लिखाई में उपजी नई परिस्थितियां कुछ विद्यार्थियों के सामने ऐसा दबाव पैदा कर रही हैं कि कई बार वे उसे बर्दाश्त कर पाने में सक्षम नहीं हो पाते और आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। इस स्थिति की मूल वजहों के साथ-साथ समस्या यह भी है कि ऐसी स्थिति में पड़े बच्चों को ठीक समय पर आसपास का सहयोग नहीं मिल पाता है और वे अपने उलझे हालात में और गहरे फंसते चले जाते हैं।
ऐसे में स्कूलों या शैक्षिक संस्थानों के भीतर भी अगर कोई ऐसा तंत्र खड़ा किया जा सके जो दबाव और उससे उपजी परिस्थितियों का सटीक आकलन करे और इसके असर में पड़े विद्यार्थियों की पहचान करके समय पर ठोस मदद मुहैया कराए तो इस समस्या पर काबू पाना मुश्किल नहीं है। इस मामले में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के दिशानिर्देश एक बेहतर रास्ता तैयार करने की कोशिश है, जिसे विकसित करने के पीछे का मुख्य विचार है- ‘हर बच्चे का महत्त्व है’।
इसके तहत स्कूलों को संवेदनशीलता और समझ बढ़ाने के साथ-साथ अपना नुकसान करने से बचाने के लिए बच्चों को समय पर सहायता प्रदान करने को कहा गया है। यों भी आत्महत्या आमतौर पर अचानक उपजी परिस्थिति का नतीजा नहीं होते और इसमें सामाजिक धारणाएं और सोच एक प्रमुख कारक और प्रभाव के रूप में काम करती हैं। इसलिए दिशानिर्देश में स्कूलों, अभिभावकों और समुदाय के बीच साझेदारी को बढ़ावा देने, खुदकुशी को रोकने और आत्मघाती व्यवहार से जुड़ी नकारात्मक सोच को खत्म करने के मकसद से सामाजिक सहयोग और समर्थन को बढ़ावा देने पर भी जोर दिया गया है।
यह विडंबना ही है कि बच्चों के लिए स्कूली या किसी भी स्तर की जो शिक्षा सहजता से ज्ञान प्राप्त करने, बौद्धिक विकास और व्यक्तित्व निर्माण का जरिया होना चाहिए, वह एक ऐसे दबाव के रूप में काम करने लगती है, जिसका बोझ सह पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। सवाल है कि हर परीक्षा में सबसे ज्यादा अंक लाने, किसी प्रतियोगिता में हर हाल में सफल होने और पद हासिल करने की बेलगाम होड़ बच्चों में कैसे पैदा हो जाती है?
स्कूल से लेकर समाज और खुद अभिभावकों के भीतर परीक्षा में ऊंचे अंक के आधार पर देखने की भूख ने बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क को इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि पढ़ाई-लिखाई के बीच उनके विवेक, धीरज और संतुलन पर इसका घातक असर पड़ता है। शिक्षा और शिक्षण की परिस्थितियों को सहज और ज्ञान प्राप्ति का जरिया बनाने के साथ-साथ अगर बच्चों के भीतर उथल-पुथल की पहचान समय पर करके उन्हें मनोवैज्ञानिक सहायता मुहैया कराई जा सके तो इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। लेकिन इसके लिए अंक आधारित महत्त्वाकांक्षा की परिभाषा को बदल कर बेहतर, संवेदनशील और बुद्धिमान मनुष्य बनाने की कसौटी तैयार करनी होगी। इस लिहाज से देखें तो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर जारी ताजा दिशानिर्देश एक स्वागतयोग्य पहल है।