लोकसभा के लिए जारी चुनाव में सभी दल और उनके नेता प्रचार अभियान में पहले से ज्यादा मुखर हो रहे हैं। मगर इस बीच कई दलों के वरिष्ठ नेताओं की भी जैसी बयानबाजियां सामने आई हैं, उससे साफ है कि मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सार्वजनिक रूप से भी दिए जाने वाले भाषणों में मर्यादा का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जा रहा है। जनहित के मुद्दे उठाने और उस पर केंद्रित सकारात्मक बहस के जरिए जनता के सामने मुद्दे को लेकर स्पष्टता बनाने में रुचि कम दिखती है, जबकि आक्रामक बयानबाजियों के जरिए लोगों को अपने पक्ष में खड़ा करने की कोशिश आम होती जा रही है।

ऐसे में निर्वाचन आयोग की यह सलाह महत्त्वपूर्ण है कि राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं को प्रचार अभियान में विमर्श के ऐसे अच्छे उदाहरण स्थापित करने चाहिए, जिसकी उनसे अपेक्षा है। उम्मीद यह भी की जाती है कि इस क्रम में नेता ऐसी बातें नहीं करेंगे, जिससे समाज का नाजुक ताना-बाना खराब हो। इसी के मद्देनजर आयोग ने कहा कि यह नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे चुनाव के बचे हुए चरणों के दौरान अपने बयानों और भाषणों में उठाए जाने वाले मुद्दों को सही तरीके से पेश करें।

देश के लोकतांत्रिक ढांचे और सामाजिक ताने-बाने के लिहाज से देखें तो निर्वाचन आयोग की सलाह की अपनी अहमियत है। मगर एक संवैधानिक निकाय होने और देश में चुनाव आयोजित कराने की सारी जिम्मेदारी उठाने के बावजूद उसकी इस तरह की अपेक्षाओं की जमीनी हकीकत क्या है? ऐसे क्या कदम उठाए जाते हैं, जिससे चुनाव प्रचार के दौरान विमर्श को एक आदर्श स्तर देने की सलाह पर अमल सुनिश्चित हो?

यह छिपा नहीं है कि देश में राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेता भी चुनाव के दौरान जैसी टिप्पणियां कर देते हैं, वे कई बार न सिर्फ मर्यादा के खिलाफ और निम्न स्तर के होते हैं, बल्कि उससे देश की लोकतांत्रिक गरिमा को भी गहरी चोट पहुंचती है। अफसोसनाक यह भी है कि ऐसा करने में राष्ट्रीय कही जाने वाली राजनीतिक पार्टियों के निचले स्तर के नेता-कार्यकर्ता तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते ही हैं, कई बार शीर्ष नेता भी निजी हमले करने या आदर्श आचार संहिता को धता बता कर अवांछित और निराधार टिप्पणियां करने से बाज नहीं आते। अक्सर माहौल इस हद तक कड़वा हो जाता है कि अच्छे विमर्श की जगह नहीं बन पाती।

ऐसे में बहस को एक स्तरीय स्वरूप देने की चुनाव आयोग की अपेक्षा लोकतंत्र की मजबूती के लिहाज से जरूरी है। मगर यह सवाल लाजिमी है कि नेताओं की कुछ बेलगाम बयानबाजियों के खिलाफ कार्रवाई करके जहां आयोग को स्पष्ट संदेश भी देना चाहिए, वहां सिर्फ आग्रह करने की औपचारिकता का हासिल क्या होगा! अगर कभी निर्वाचन आयोग के पास अनर्गल टिप्पणियों के लिए किसी नेता के खिलाफ शिकायत जाती भी है तो नोटिस जारी करने से लेकर कार्रवाई होने तक की हकीकत छिपी नहीं रही है।

आखिर क्या कारण है कि आयोग की तमाम हिदायतों के बावजूद नेताओं की बेलगाम बयानबाजियां बंद नहीं हो पा रहीं? आजादी के सात दशक के बाद के चुनावों में भी मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए अलग-अलग दलों के शीर्ष स्तर के नेता अगर एक बेहतर और गरिमापूर्ण लोकतांत्रिक विमर्श खड़ा कर पाने के बजाय बेहद उथली टिप्पणियों के जरिए चुनाव में जीत हासिल करने की कोशिश करते हैं तो यह किसकी नाकामी है?