कुछ दिन पहले भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद यानी आइसीएमआर की आनुषंगिक संस्था राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने अपने एक अध्ययन में बताया था कि जीवन-शैली संबंधी आधी से अधिक बीमारियां खानपान में गड़बड़ी की वजह से होती हैं। अब उसी क्रम में आइसीएमआर ने लोगों को आगाह करते हुए कहा है कि डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के ऊपर लिखी जानकारियां भ्रामक हो सकती हैं। इसलिए उनके चुनाव में सावधानी बरतनी चाहिए। उसने बकायदा उदाहरण देकर समझाया है कि फलों के रस के नाम पर बिकने वाले पेय में दस फीसद ही फलों का अंश हो सकता है, बाकी शर्करा हो सकती है।

आइसीएमआर के सुझाव से लोगों में जागरूकता आई

ऐसे अनेक खाद्य पदार्थों के डिब्बों पर भ्रामक दावे लिखे मिल सकते हैं कि उनका उपयोग सेहत के लिए अच्छा है। निश्चय ही आइसीएमआर के इस सुझाव से लोगों में कुछ जागरूकता पैदा हो सकती है। मगर सवाल है कि जब यह बात खुद आइसीएमआर जैसी स्वास्थ्य से जुड़ी शीर्ष संस्था को पता है कि भ्रामक जानकारियों के साथ डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ बाजार में बेचे जा रहे हैं, तो इसके प्रति वह केवल उपभोक्ता को जागरूक बना कर इस समस्या से पार पा लेने का कैसे भरोसा कर सकती है।

लोग जानते हुए भी इसकी लगातार अनदेखी कर रहे हैं

लंबे समय से इस बात पर चिंता जताई जा रही है कि डिब्बाबंद और तुरंता आहार खासकर बच्चों और किशोरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहे हैं। इनके चलते मोटापा, मधुमेह, हृदयरोग जैसी अनेक बीमारियां पैदा हो रही हैं। फिर भी हैरानी की बात है कि ऐसे खाद्य पदार्थों के जोखिम खुद उपभोक्ता के कंधे पर डाल कर जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेने की कोशिश की जा रही है। कुछ दशक पहले जब डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थों में हानिकारक तत्त्व मिले होने को लेकर सवाल उठने शुरू हुए थे, तब सरकार ने ऐसे उत्पाद की गुणवत्ता पर नजर रखने और कंपनियों को जवाबदेह बनाने की गरज से भारत खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण यानी एफएसएसआइ का गठन किया था।

यह नियम बना कि एफएसएसआइ से प्रमाणपत्र प्राप्त किए बिना कोई भी डिब्बाबंद या पैकेट वाला खाद्य पदार्थ बाजार में नहीं उतारा जा सकता। बाजार में उपलब्ध इस तरह के हर खाद्य पदार्थ की थैली या डिब्बे पर इस प्रमाणपत्र का उल्लेख होता है। मगर इसके बावजूद उनमें हानिकारक पदार्थों का इस्तेमाल और भ्रामक दावे बंद नहीं हो पा रहे हैं, तो इस बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है।

आइसीएमआर ने तो डिब्बों पर लिखे विवरण जांच कर ही खाद्य पदार्थ खरीदने की सलाह जारी कर दी है, मगर सवाल है कि ऐसा कितने लोग कर पाते हैं और कर पाएंगे। खाद्य पदार्थों की थैलियों और डिब्बों पर अव्वल तो विवरण इतने महीन अक्षरों में लिखे होते हैं कि उन्हें पढ़ना मुश्किल होता है। ज्यादातर विवरण अंग्रेजी में होते हैं। कितने लोग अंग्रेजी पढ़ पाते हैं। दूर-दराज गांवों के लोगों के लिए तो वह विवरण काला अक्षर भैंस बराबर ही होता है।

फिर, ऐसे पदार्थों के उपभोक्ता ज्यादातर बच्चे, किशोर और युवा होते हैं। उनकी जीभ पर अब ऐसी चीजों का स्वाद इस कदर चढ़ चुका है कि वे विवरण बांच कर उन्हें खरीदते ही नहीं। ऐसे में जिम्मेदारी आखिरकार स्वास्थ्य और खाद्य से जुड़ी संस्थाओं की है कि वे ऐसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर ही अंकुश लगाने का कोई उपाय तलाश करें, जिनसे लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है।