पिछले कुछ वर्षों से हर तरफ विकास एक नारे के रूप में चर्चा का केंद्रीय विषय बना हुआ है। देश के दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों को जिस स्तर की परेशानियां होती रही हैं, उसमें यह स्वाभाविक ही है कि उनके भीतर भी अपने क्षेत्र में सड़क, परिवहन, अस्पताल और स्कूल आदि की सुविधाएं उपलब्ध होने की उम्मीद हो। मगर जब राजनीतिक दलों के भीतर विकास के सिर्फ नारे के जरिए ही जनता का समर्थन हासिल करना एक मकसद रह गया हो, तो जमीनी हकीकत त्रासद ही होगी।

उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में एक गर्भवती महिला को आपात स्थिति में पानी और कीचड़ से भरी कच्ची सड़क पर बैलगाड़ी के सहारे अस्पताल लेकर जाने की खबर यह बताती है कि विकास और चमकती अर्थव्यवस्था के शोर में कई तकलीफदेह सच्चाइयां दबी रह जाती हैं।

अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि प्रसव पीड़ा का सामना करती महिला को अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस को बुलाया भी गया, तो वह बेहद खराब सड़क और कीचड़ की वजह से नहीं पहुंच पाई। मजबूरन दलदली और ऊबड़-खाबड़ रास्ते को तीन घंटे में पार कर एक बैलगाड़ी के जरिए महिला को सात किलोमीटर दूर स्थित स्वास्थ्य केंद्र ले जाना पड़ा।

गर्भवती को बैलगाड़ी से स्वास्थ्य केंद्र ले जाने को मजबूर हुए परिजन, कीचड़ और कच्ची सड़क के कारण नहीं पहुंच सकी एंबुलेंस

जिस दौर में आए दिन देश और कुछ राज्यों में एक्सप्रेस-वे जैसी चमकदार और अंतरराष्ट्रीय स्तर की निर्बाध सड़कों का हवाला देकर विकास के तेज गति से आगे बढ़ने के दावे किए जा रहे हैं, शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचा देने और सबको स्वस्थ रखने के लिए उपाय करने का प्रचार किया जा रहा हैं, ऐसे में हमीरपुर की घटना एक आईने की तरह सबके सामने खड़ी है।

राज्य के किसी हिस्से में शानदार चमकती एक्सप्रेस-वे जैसी सड़कें और सभी आधुनिक संसाधनों वाले अस्पतालों के बरक्स किसी अन्य हिस्से में एंबुलेंस के पहुंचने लायक भी सड़क नहीं होना और आपात स्थिति में पहुंची गर्भवती महिला के सामने कोई चिकित्सा सुविधा हासिल करने के लिए सात किलोमीटर दूर जाने की नौबत आना आखिर क्या दर्शाता है? संसाधनों और सुविधाओं के मामले में अलग-अलग हिस्सों के बीच ऐसी खाई के रहते क्या किसी भी स्तर पर समावेशी विकास का दावा किया जा सकता है?