भारत में कुशल पेशेवर विदेश में नौकरी तलाशने को प्राथमिकता देते हैं। अच्छा वेतन पाने की ख्वाहिश उन्हें विदेश खींच ले जाती है। इस मामले में अमेरिका भले ही भारतीयों की पहली पसंद है, मगर अब वहां ठिकाना बनाना आसान नहीं रह गया है। अमेरिका ने इस साल सितंबर में पहले एच-1बी वीजा पर शुल्क कई गुना बढ़ा दिया और अब नई नीति तैयार की गई है, जिसके तहत किसी भी देश से अमेरिका जाने वाले पेशेवरों की नौकरी वहां के कर्मियों को प्रशिक्षित करने तक ही सीमित रहेगी, इसके बाद उन्हें स्वदेश वापस भेज दिया जाएगा।
यानी अमेरिका अब विदेशी प्रतिभाओं का इस्तेमाल केवल अपने कर्मियों का हित साधने तक ही करेगा। गौरतलब है कि अमेरिका के वित्त मंत्री स्काट बेसेंट ने गुरुवार को कहा कि एच-1बी वीजा के तहत कुशल विदेशी पेशेवरों को लाने का मकसद अमेरिकी कर्मियों को उस कौशल में प्रशिक्षित करना है, जो उनके पास नहीं है। प्रशिक्षण में तीन से सात साल लगेंगे, इसके बाद वे स्वदेश लौट जाएंगे। इससे स्पष्ट है कि भारत समेत अन्य देशों के लोग अब अमेरिका में स्थायी तौर पर नौकरी नहीं कर पाएंगे।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश को फिर से महान बनाने का दावा करते रहे हैं। उनका कहना है कि विदेशी पेशेवरों के बड़ी संख्या में आने से वहां के नागरिकों का रोजगार छिन रहा है। इसी क्रम में उन्होंने अमेरिकी कंपनियों पर अपनी विनिर्माण इकाइयों को अन्य देशों से स्वदेश वापस लाने का दबाव भी बनाया था। अमेरिका ने एच-1बी वीजा का शुल्क भी इसलिए बढ़ाया है, ताकि इसकी पहुंच केवल उच्च कौशल वाले विदेशियों तक ही सीमित रहे।
हाल की एक रपट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2023-24 में दो लाख से ज्यादा भारतीयों ने एच1-बी वीजा हासिल किया था। वर्ष 2020 से 2023 के बीच कुल स्वीकृत वीजा में 73.7 फीसद भारतीयों को मिले थे। खासकर भारतीय आइटी कंपनियां अमेरिकी बाजार पर सबसे ज्यादा निर्भर हैं। ऐसे में सवाल है कि एच1-बी वीजा को लेकर अमेरिका की नई नीति का लक्ष्य क्या विदेशी प्रतिभाओं को सिर्फ अपने फायदे भर के लिए इस्तेमाल करने जैसा नहीं है? इसे विदेशी पेशेवरों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
