एक विकासमान समाज तभी तक आगे का सफर जारी रख सकता है, जब वह बदलते वक्त के नए मूल्यों को आत्मसात करता है और अपने प्रगतिशील विवेक के साथ बदलाव में संतुलन कायम रखता है। विडंबना यह है कि कई बार समाज की नई पीढ़ी बदलाव में अपनी जगह बनाने के लिए वक्त की जरूरतों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करती है, लेकिन उसके सामने तंगनजरी या संकीर्णताएं दीवार बन कर खड़ी हो जाती हैं। इस तरह की बाधाएं कई बार इतनी सख्त होती हैं कि उसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए भी गुंजाइश नहीं बचती और अपने विवेक से अपना भविष्य बनाने या जीवन-मूल्य चुनने वाले किसी युवा को हिंसा के बल पर रोकना हल मान लिया जाता है।

दिल्ली से सटे गुरुग्राम में जिस तरह एक व्यक्ति ने अपनी बेटी की हत्या कर दी, उसने एक बार फिर सबको यह सोचने पर मजबूर किया है कि आजादी के सात दशक बाद और विकास के तमाम आधुनिक मूल्यों के बीच समाज आखिर विरोधाभासों की कितनी परतों के बीच जीता है!

गौरतलब है कि गुरुग्राम में गुरुवार को राज्य स्तरीय टेनिस खिलाड़ी रही एक लड़की की उसके पिता ने गुस्से में आकर गोली मार कर हत्या कर दी। खबरों के मुताबिक, इसकी वजह यह थी कि बेटी के एक टेनिस अकादमी चलाने की वजह से पिता को समाज में कुछ लोग अक्सर ताने मारते थे। किसी भी स्थिति में क्या यह इतनी बड़ी वजह हो सकती है कि इससे खफा होकर कोई पिता अपनी बेटी की जान तक ले ले? संभव है कि पिता ने अपनी बेटी के टेनिस खिलाड़ी बनने और संघर्ष करके राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के सफर में हरसंभव योगदान दिया होगा। मगर उसके लिए समाज के ताने इतने भारी क्यों हो गए कि वह उसी बेटी का दुश्मन हो गया?

आज मौका मिलने पर हर क्षेत्र में लड़कियों ने अपनी क्षमताएं साबित की हैं और यह किसी भी समाज के लिए एक स्वागतयोग्य तस्वीर है। लेकिन यह भी एक तकलीफदेह सच है कि इस समाज का ज्यादातर हिस्सा जिस जड़ता के मानस और पारंपरिक मूल्यों के दायरे में जीता है, उसके बीच एक लड़की का चारदीवारी से बाहर अपनी जगह बनाना, व्यक्तित्व का विकास करना बेहद जद्दोजहद से भरा सफर होता है। इसके बावजूद अगर कोई लड़की अपनी क्षमताओं के बूते आगे बढ़ती है, सार्वजनिक जीवन और गतिविधियों में सक्रिय दिखती है, तो इसे समाज की पितृसत्तात्मक दृष्टि अपने पारंपरिक मूल्यों के खिलाफ मानती है और उसे रोकने की हर कोशिश की जाती है।

गुरुग्राम में अपने पिता के हाथों जान गंवाने वाली बेटी भी दरअसल इन्हीं पितृसत्तात्मक और सामंती मूल्यों की शिकार हुई। एक ओर, टेनिस अकादमी चला कर अपने बूते खड़ा होने और सोशल मीडिया के मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करने वाली लड़की समाज की नजर में सहज स्वीकार्य नहीं हुई, तो दूसरी ओर कुछ लोगों की कुंठाओं से उपजे ताने से पिता इतना आहत हुआ कि उसने अपनी बेटी को ही मार डाला।

सवाल है कि पिता का अहं उसकी संवेदना पर भारी क्यों पड़ा! यह एक विचित्र विरोधाभासों के बीच जीते समाज की तस्वीर है, जिसमें लोग आधुनिक तकनीक और संसाधनों की सुख-सुविधाओं को हासिल करने की होड़ में तो लगे हैं, लेकिन सोच और मानसिकता के स्तर पर जड़ता से लैस ऐसी रूढ़ियों के वाहक भी हैं, जो उन्हें हिंसक भी बना देती है। ऐसी हिंसा तक ले जाने वाली कोई भी परंपरा या मानसिकता क्या किसी समाज के मानवीय मूल्यों को बचा सकेगी?