मणिपुर में मई महीने से अब तक जारी हिंसा को लेकर सरकार की ओर से उठाए गए कदम उसकी नाकामी ही दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में जमीनी स्तर पर जो समुदाय कमजोर पड़ता है, उसके प्रति अन्याय की स्थितियां मजबूत होती हैं। जबकि सरकार की मुख्य भूमिका कमजोर और उत्पीड़ित तबके की सुरक्षा करने की होनी चाहिए, मगर ऐसा लगता है कि न तो हिंसक गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगाने में कामयाबी मिल पा रही है और न ही न्याय सुनिश्चित करने के हालात बनाए जा रहे हैं।

हालत यह है कि अदालतों तक पहुंचे मामलों पर सुनवाई में भी कई तरह की अड़चनें खड़ी हो रही हैं। हाल ही में आरोप लगे कि मणिपुर में एक विशेष समुदाय के वकीलों को उच्च न्यायालय में पेश होने की इजाजत नहीं दी गई। अगर ये आरोप सही हैं तो यह हिंसक गतिविधियों में लोगों के मारे जाने से लेकर संपत्तियों के नुकसान और लोगों के अपनी जगहों से उजड़ने के समांतर एक ऐसी स्थिति है, जिसमें पीड़ित तबकों के लिए न्याय के रास्ते भी बंद हो जाएंगे।

इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को हिंसा प्रभावित मणिपुर में बार एसोसिएशन के सदस्यों से यह सुनिश्चित करने को कहा कि राज्य में किसी भी वकील को अदालती कार्यवाही तक पहुंचने से न रोका जाए। अगर किसी को रोका गया तो यह अदालत के आदेश की अवमानना होगी। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि यह अदालत लोगों के लिए है और मामले की सुनवाई करना उपचारात्मक प्रक्रिया का हिस्सा है।

अदालत ने मणिपुर सरकार को भी यह सुनिश्चित करने को कहा कि राज्य के सभी नौ न्यायिक जिलों में वीडियो कान्फ्रेंसिंग की सुविधाएं स्थापित की जाएं, ताकि कोई वकील या वादी डिजिटल माध्यम से हाई कोर्ट के समक्ष उपस्थित होने का इच्छुक हो, तो वह न्यायालय को संबोधित कर सके। हालांकि मणिपुर सरकार की ओर से कहा गया कि अदालत में पेश होने से किसी को नहीं रोका जा रहा है।

लेकिन अगर ऐसे आरोप सामने आए हैं और उनका कहीं भी कोई आधार है तो निश्चित रूप से यह न्याय की अवधारणा को बाधित करेगा। शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अगली बार अपने समक्ष नमूना आदेश का संकलन भी पेश करने को कहा, जिससे पता चल सके कि सभी समुदायों के वकील उच्च न्यायालय में पेश हुए।

विडंबना है कि मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच हिंसा की शुरुआत के अब पांच महीने होने को आए, लेकिन इससे जुड़ी बुनियादी समस्या पर विचार या बातचीत की गुंजाइश निकालने की तो दूर, अब तक हिंसा की घटनाओं को भी नहीं रोका जा सका है। अब भी वहां से अक्सर ऐसी खबरें आ रही हैं, जिनमें किसी खास समुदाय के लोगों को चिह्नित करके उनके इलाकों पर हमला किया जाता है।

राज्य स्तरीय सुरक्षा तंत्र और सेना की तैनाती के बावजूद इतने लंबे वक्त से जारी हिंसा और उसके बाद अब अदालती प्रक्रिया में न्याय की मांग तक पीड़ितों की पहुंच बाधित किए जाने की खबरें यह बताने के लिए काफी हैं कि मणिपुर सरकार शिद्दत से काम नहीं कर रही है। दूसरी ओर, इस मसले पर शांति समिति और निगरानी समिति के गठन के बावजूद अब तक कोई सकारात्मक नतीजा सामने नहीं आ सका है। इस बात की तत्काल जरूरत है कि हिंसा रोकने के साथ-साथ पीड़ित तबके को न्याय दिलाने को लेकर सरकार गंभीर हो।