पिछले साल मई में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सरकारी विज्ञापनों में केवल प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और देश के प्रधान न्यायाधीश की तस्वीरें दी जा सकती हैं। इस फैसले के औचित्य पर शुरू से सवाल उठ रहे थे। कई राज्यों ने इसके विरुद्ध पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी। केंद्र ने भी राज्यों के रुख का समर्थन किया। और अंत में सर्वोच्च अदालत को भूल सुधार की जरूरत महसूस हुई। उसने सरकारी विज्ञापनों में केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों तथा राज्यों के मंत्रियों की भी तस्वीरें दिए जा सकने की अनुमति दे दी है। ताजा फैसला देश के संघीय ढांचे और उसकी भावना के अनुरूप है। राज्यों के भी सरकारी विज्ञापनों में केवल प्रधानमंत्री की तस्वीर रहे, यह न तो बहुत-सी राज्य सरकारों को स्वीकार्य हो सकता है और न ही इसे संघीय कसौटी पर खरा ठहराया जा सकता है।
कई राज्यों में केंद्र में सत्तासीन पार्टी की सरकारें हैं। वहां के मुख्यमंत्री यह गवारा कर सकते हैं कि उनके सरकारी विज्ञापनों में केवल प्रधानमंत्री मौजूद रहें। अलबत्ता वे भी बुझे मन से ही यह स्वीकार कर पाएंगे। पर जिन राज्यों में अन्य दलों की सरकारें हैं उन्हें प्रधानमंत्री की तस्वीर के अलावा और किसी की तस्वीर प्रकाशित करने की इजाजत न दिया जाना संघीय भावना पर कुठाराघात के अलावा उनके साथ घोर राजनीतिक अन्याय भी था। फिर, कई विषय समवर्ती सूची के होते हैं, जिनमें केंद्र और राज्य, दोनों की साझी भूमिका और जवाबदेही होती है। यही नहीं, कई योजनाएं केवल राज्य-स्तरीय होती हैं। ऐसे में राज्यों के सरकारी विज्ञापनों में प्रधानमंत्री तो दिखें, पर मुख्यमंत्री और राज्यों के मंत्री न दिखें यह आदेश बेतुका था। सर्वोच्च न्यायालय के पिछले हफ्ते आए फैसले से वह विसंगति दूर हो गई है। पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि ग्यारह महीने पहले आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की चाहे जितनी आलोचना हुई हो, उसके पीछे एक नेक मकसद जरूर था, वह यह कि सरकारी विज्ञापनों की फिजूलखर्ची पर रोक लगे।
अमूमन देखा जाता है कि सरकारें या विभिन्न मंत्रालय आए दिन अपनी उपलब्धियों के विज्ञापन जारी करते रहते हैं। यह सब जनता को जानकारी देने के तर्क पर होता है। पर असल मंशा अपना बखान कर राजनीतिक प्रचार पाने की होती है। यह इससे भी जाहिर है कि चुनाव नजदीक आते ही सरकारी विज्ञापनों का तांता लग जाता है। यह सब सरकारी खजाने का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? कुछ सरकारी विज्ञापन जरूरी माने जा सकते हैं, मसलन आपदा राहत के उपाय, किसी बीमारी से बचाव, राष्ट्रीय बचत योजना आदि से संबंधित विज्ञापन। पर अपनी पार्टी या विचारधारा के महापुरुषों को श्रद्धांजलि या और कईबहानों से आने वाले बहुत सारे विज्ञापन जरूरी नहीं माने जा सकते। कम से कम उनकी मात्रा या आवृत्ति जरूर कम की जा सकती है।
पिछले साल मई में आया सर्वोच्च अदालत का फैसला अपनी परिणति में असंगत भले रहा हो, पर उसने कई अहम सुझाव भी दिए थे। जैसे, उसने कहा था कि अगर संदेश या सामग्री एक हो तो एक ही विज्ञापन से काम चल जाना चाहिए, न कि अलग-अलग मंत्रालय इसके लिए अलग-अलग विज्ञापन जारी करें। इसी तरह, निर्वाचन आयोग ने चुनाव से छह माह पहले सरकारी उपलब्धियों वाले विज्ञापनों पर रोक लगाने का सुझाव दिया था। संघीय स्वरूप को लेकर उठी शंका-आशंका तो सर्वोच्च अदालत ने दूर कर दी, पर सरकारी विज्ञापनों की मर्यादा कब तय होगी?