दुनिया भर में विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। बुनियादी ढांचे से लेकर प्रौद्योगिकी के विकास में नई-नई मिसाल कायम की जा रही हैं। इसी का दंभ भरकर किसी अन्य ग्रह पर जीवन की खोज करने या फिर भविष्य में चांद पर बस्ती बसाने के दावे भी किए जा रहे हैं। मगर, क्या वास्तव में विकास का पैमाना यही है? समाज के समग्र उत्थान का तत्त्व विकास की इस धारा में कहां है? यह कैसा विकास है कि एक तरफ विभिन्न देश तकनीक के बूते खुद के ताकतवर एवं साधन संपन्न होने का राग अलाप रहे हैं, तो दूसरी ओर दुनिया में करोड़ों लोग भुखमरी के कारण अपने शरीर की ताकत भी खो रहे हैं।

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की ‘वैश्विक खाद्य संकट’ पर एक हालिया रपट में किए गए खुलासे चिंताजनक है। इसमें कहा गया है कि दुनिया भर में उनतीस करोड़ से अधिक लोग ऐसे हालात में जी रहे हैं, जहां उनके लिए एक वक्त का भोजन जुटा पाना भी मुश्किल है। साफ है कि समाज का सबसे कमजोर तबका आज भी संघर्ष, महंगाई, प्राकृतिक आपदा और जबरन विस्थापन जैसी समस्याओं के चक्रव्यूह में उलझा हुआ है।

लगातार छठे वर्ष दुनिया में गंभीर खाद्य संकट और बच्चों में कुपोषण बढ़ा

संसाधनों के अभाव और संकटग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन की डगर ज्यादा कठिन हो गई है। रपट में सामने आया है कि 2024 में लगातार छठे वर्ष दुनिया में गंभीर खाद्य संकट और बच्चों में कुपोषण बढ़ा है। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले वर्ष 53 देशों या क्षेत्रों के 29.5 करोड़ लोग गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहे थे। यह आंकड़ा वर्ष 2023 के मुकाबले 1.37 करोड़ अधिक है। यानी सुधार के बजाय स्थिति पहले से कहीं अधिक खराब हो गई है। भुखमरी के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें दो देशों के बीच युद्ध और आंतरिक संघर्ष प्रमुख हैं।

भूख, भुखमरी और भोजन का संकट, एक अरब आबादी की जरूरत का खाना रोजाना हो रहा बर्बाद!

इन दो कारणों से ही बीस देशों में करीब 14 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं। जाहिर है, अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की वजह से हालात और ज्यादा बदतर हो रहे हैं। युद्ध के दौरान प्रभावित लोगों को राहत के तौर पर खाद्य सामग्री पहुंचाने पर रोक लगा देने की खबरें भी आती रहती हैं। इस तरह के प्रयास वास्तव में मानवीय संवेदनाओं के दम तोड़ देने की ओर इशारा करते हैं।

भारत में गरीबी और भुखमरी काफी हद तक कृषि पर निर्भर

महंगाई और बेरोजगारी से उपजी विकट आर्थिक स्थितियां भी भुखमरी के लिए जिम्मेदार हैं। रपट में कहा गया है कि इन दोनों कारणों से पंद्रह देशों में 5.94 करोड़ लोगों का जीवन संकट में है। इसके अलावा, सूखा और बाढ़ ने 18 देशों में 9.6 करोड़ लोगों को खाद्य संकट में धकेल दिया है। इस पर तुर्रा यह है कि इन लोगों को खाद्य एवं पोषण सहायता के लिए मिलने वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मदद में भी भारी गिरावट आई है। ऐसा लगता है कि वैश्विक मदद और राजनीतिक इच्छाशक्ति की सांसें धीरे-धीरे उखड़ रही हैं। ऐसे में जबरन विस्थापन भुखमरी के संकट को और बढ़ा रहा है। 21वीं सदी में भी अगर भुखमरी की समस्या विकराल होती जा रही है, तो यह व्यवस्था के साथ-साथ मानवता के लिए भी खतरे की घंटी है।

इस समस्या से निपटने के लिए जरूरी है कि संकटग्रस्त इलाकों में स्थानीय खाद्य प्रणालियों और पोषण सेवाओं में निवेश पर जोर दिया जाए। समय आ गया है कि विभिन्न देशों की सरकारें जनकल्याण की योजनाओं की व्यापक समीक्षा करें और भुखमरी को दूर करने के लिए उचित एवं प्रभावी उपाय किए जाएं। खाली पेट के सवाल का जवाब खाली हाथों और पीठ फेरकर नहीं दिया जा सकता।