उससे यह सवाल एक बार फिर उठा है कि दिन-रात लोकतंत्र की दुहाई देने वाले जनप्रतिनिधियों और पार्टियों के पास इस विचार के प्रति सचमुच कितना सरोकार है। गौरतलब है कि हाल में दिल्ली नगर निगम के लिए चुने गए पार्षदों के शपथ ग्रहण के दौरान पीठासीन अधिकारी के एक फैसले को लेकर आम आदमी पार्टी और भाजपा के सदस्यों के बीच का विरोध हंगामे में तब्दील हो गया और यहां तक कि धक्का-मुक्की जैसी स्थिति भी देखी गई।

संभव है कि किसी मसले को लेकर दोनों पक्षों के बीच असहमति हो, लेकिन क्या उसका हल हंगामे और मारपीट जैसे हालात से निकाला जा सकता है? इतना तय है कि सदस्यों को शपथ दिलाए जाने की प्रक्रिया और प्राथमिकता के जिस मसले पर विवाद शुरू हुआ, उसका समाधान बातचीत और निर्धारित नियमों के मुताबिक कार्यवाही संचालित किए जाने के रूप में आना था। इसके बावजूद हुआ यह कि पहले दोनों पक्षों के बीच हंगामे के साथ नारेबाजी शुरू हो गई और बाद में तनातनी और धक्का-मुक्की के अराजक हालात पैदा हो गए।

सवाल है कि देश में लोकतंत्र की परंपरा के बीच यह किस तरह की प्रवृत्ति गहराती जा रही है कि अगर किसी मुद्दे पर अलग-अलग पक्षों के बीच मतभेद हैं तो उसका नतीजा सदन जैसी जगह में भी अराजकता और कई बार हिंसा तक के रूप में सामने आ जाए। दरअसल, नगर निगम की कार्यवाही में दिल्ली के महापौर का चुनाव होना था। लेकिन उससे पहले पीठासीन अधिकारी ने शपथ ग्रहण के लिए मनोनीत सदस्यों को बुलाया।

इसी मसले पर आम आदमी पार्टी के पार्षदों ने विरोध जताया कि मनोनीत पार्षदों को पहले शपथ दिला कर मतदान का अधिकार दिलाने की साजिश की जा रही है। सवाल है कि अगर पीठासीन अधिकारी की ओर से कार्यवाही किसी गलत प्रक्रिया से संचालित की गई, तो उसका क्या आधार था! फिर क्या उससे असहमति या उसे बदलने का रास्ता हंगामा ही था? विचित्र यह है कि आम आदमी पार्टी और भाजपा एक दूसरे पर अराजकता फैलाने का आरोप लगाते रहे, लेकिन किसी पक्ष में इस बात की फिक्र नहीं दिखती कि जो हंगामे की स्थिति आई, उससे किसका भला होगा।

यह समझना मुश्किल है कि जनता की नुमाइंदगी करने का दावा लेकर चुने गए लोगों को इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं लगता कि उन्हें संवैधानिक दायरे में अपनी भूमिका का निर्वाह इस तरह करना है, जिससे लोकतंत्र की जमीन मजबूत हो। लेकिन अक्सर ऐसी घटनाएं देखी गई हैं कि सदन में किसी मसले पर असहमति या मतभेद होने पर संबंधित मुद्दे पर बहस या विचार के बजाय कुछ सदस्य हंगामा शुरू कर देते हैं।

यहां तक कई बार कुछ राज्यों के सदनों में हिंसक हालात भी पैदा हुए। सवाल है कि नियम-कायदों पर अमल की मांग के साथ जो सदस्य शोर और हंगामे से आगे बढ़ कर अराजकता और हिंसा तक का रास्ता अख्तियार कर लेते हैं, क्या वे कभी ऐसा सोचते हैं कि सदन में अपने प्रतिनिधियों के ऐसे बर्ताव का आम जनता के बीच क्या संदेश जाता है? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि देश में संविधान के तहत कायम लोकतंत्र में हर व्यवस्था के लिए एक प्रक्रिया का निर्धारण किया गया है और उसे उसी तरह से चलना चाहिए।

जनप्रतिनिधियों की यह जिम्मेदारी है कि वे प्रक्रिया के मुताबिक ही संबंधित संस्थाओं के संचालन को सुनिश्चित करने में अपना योगदान दें। अगर इस बीच कभी अराजक स्थिति पैदा होती है तो उससे लोकतंत्र की जड़ें ही कमजोर होंगी और इसका खमियाजा आखिरकार सबको भुगतना होगा।