प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कराने का केंद्र माने जाने वाले कुछ शहरों से अक्सर विद्यार्थियों के आत्महत्या करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। यह समस्या अब एक व्यापक चिंता का रूप ले चुकी है। इसके अलावा, दसवीं या बारहवीं की परीक्षा में भी फेल होने या नंबर कम आने के तनाव में कई विद्यार्थियों के खुदकुशी कर लेने की खबरें हर वर्ष आ जाती हैं। चिंता की बात यह है कि अब ये कुछ घटनाएं मात्र न रह कर एक व्यापक समस्या की शक्ल लेती जा रही हैं। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की दर कुल आत्महत्या की दर से तो ज्यादा है ही, लेकिन अब यह जनसंख्या में इजाफे की दर को भी पार गई है।
NCRB की रिपोर्ट में बताई गई बातें बनीं गंभीर चिंता का विषय
गौरतलब है कि आइसी-3 सम्मेलन में बुधवार को राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के आधार पर ‘छात्र आत्महत्या : भारत में फैलती महामारी’ शीर्षक से जारी रपट में यह बताया गया है कि आत्महत्या की कुल घटनाओं में प्रति वर्ष जहां दो फीसद की बढ़ोतरी हुई है, वहीं विद्यार्थियों के बीच जान दे देने की मामलों में चार फीसद यानी राष्ट्रीय औसत से दोगुनी की वृद्धि हुई है। यह स्थिति तब है, जब इस बात की संभावना है कि विद्यार्थियों के आत्महत्या के मामलों में ‘कम रिपोर्टिंग’ हुई हो।
अगर विद्यार्थियों के बीच आत्महत्या की बढ़ती यह प्रवृत्ति खुदकुशी की कुल घटनाओं के मुकाबले और यहां तक कि आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार से भी तेज है तो यह सोचने की जरूरत है कि देश में शिक्षा का यह कैसा स्वरूप बन गया है, जिसमें पढ़ाई-लिखाई करने की उम्र में बच्चे जीवन से हार मान रहे हैं। स्कूल या उच्च शिक्षा का वह कैसा पाठ्यक्रम है जो बच्चों के भीतर हौसले और जीवट को मजबूत करने के बजाय उन्हें भावनात्मक स्तर पर बेहद कमजोर बना देता है।
वहीं समाज और अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं का वह कैसा बोझ है, जिसके नीचे दब कर बच्चे दम तोड़ रहे हैं। निश्चित रूप से यह शिक्षा के समूचे ढांचे और सामाजिक सोच की एक ऐसी त्रासदी है, जिस पर बिना देरी किए गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह स्थिति एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत दूरदर्शिता पर एक सवाल है, वहीं यह सामाजिक स्तर पर शिक्षा में कामयाबी को लेकर भ्रमित धारणा का भी संकेत है।