किसी भी देश के लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती यह होती है कि वहां अलग-अलग विचारों या मत को जाहिर करने के मामले में ऐसी बंदिशें नहीं होतीं, जिसे अभिव्यक्ति के दमन के तौर पर देखा जाए। एक वैचारिक रूप से सशक्त और परिपक्व समाज अपने विवेक के स्तर पर इतना समृद्ध होता है कि वह किसी विचार में मानवीय मूल्यों और संदर्भों को दूरगामी परिप्रेक्ष्य में देख सके।
विडंबना यह है कि विचारों की जिस भिन्नता की बुनियाद पर एक स्वस्थ समाज का सपना साकार हो सकता है, उसी को कई बार सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है और इस तरह उसका दमन करने की कोशिश की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को एक बार फिर इस प्रवृत्ति को लोकतंत्र और अभिव्यक्ति के सामने चुनौती की तरह देखा और साफ शब्दों में कहा कि अगर विचार और राय व्यक्त करने की आजादी नहीं होगी तो सम्मानजनक जीवन जीना नामुमकिन होगा, जिसकी गारंटी संविधान के तहत दी गई है।
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गौरतलब है कि राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ सोशल मीडिया पर उत्तेजक गीत के साथ एक संपादित वीडियो पोस्ट करने के लिए गुजरात के जामनगर में मुकदमा दर्ज किया गया था। आरोप यह था कि गाने के बोल उत्तेजक, राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले हैं। मामले की सुनवाई के बाद कथित ‘भड़काऊ’ कविता को लेकर दर्ज प्राथमिकी को रद्द करते हुए अदालत ने कहा कि साहित्य, जिसमें कविता और नाटक, फिल्में, मंचीय कार्यक्रम जैसे स्टैंड-अप हास्य, तंज और कला शामिल हैं, जीवन को और अधिक सार्थक बनाते हैं।
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पीठ ने यह अहम टिप्पणी भी की कि हमारे गणतंत्र के पचहत्तर वर्ष के बाद भी हम इतने कमजोर नहीं दिख सकते कि सिर्फ एक कविता, कला या मनोरंजन के किसी भी रूप के प्रदर्शन से समुदायों के बीच दुश्मनी या घृणा पैदा होने का आरोप लगाया जा सकता है। जाहिर है, अभिव्यक्ति पर बंदिश के लिए जिस तरह की परिस्थितियां रची जाती हैं, पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की चुनौतियां देखी जा रही हैं, वे देश में लोकतंत्र के लिए आखिरकार नुकसानदेह साबित होंगी और अदालत ने इसी को लेकर अपनी फिक्र जताई है।
अलग-अलग विचारों से लोकतंत्र होता है मजबूत
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि कोई भी लोकतंत्र तभी और ज्यादा मजबूत बनता है, जब उसमें अलग-अलग विचारों के प्रति भिन्न समुदायों के भीतर सहिष्णुता के लिए पर्याप्त जगह होती है। यों भी संविधान सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। खासतौर पर बौद्धिक समाज अपने दायरे में किसी विचार के प्रति समर्थन या विरोध व्यक्त करने के लिए कई बार अलग-अलग रचनात्मक विधाओं का सहारा लेता है।
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उसमें कानून और संविधान के तहत मिली आजादी के दायरे में वैसा आलोचनात्मक स्वर भी हो सकता है, जो किसी न किसी रूप में देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करे। अफसोस की बात है कि कई बार शब्दों में निहित संदेशों और प्रभाव को वैसे लोगों के आग्रहों के आधार पर देखने की कोशिश की जाती है, जो नाहक ही असुरक्षाबोध से घिरे रहते हैं और किसी स्वस्थ आलोचना को भी अपने लिए खतरा मानते हैं। अगर इस तरह के अभिव्यक्तियों को दबाने के प्रयास किए जाएंगे तो वह न केवल एक स्वतंत्र समाज के विकास में बाधक बनेगा, बल्कि इससे देश के लोकतांत्रिक मूल्य भी कमजोर होंगे।