हास्य मानव जीवन का एक सहज हिस्सा रहा है, लेकिन क्या इसके नाम पर किसी को किसी व्यक्ति, समूह या पहचान का मजाक उड़ाने और इस तरह उन्हें चोट पहुंचाने की छूट मिल जाती है? किसी भी सभ्य समाज में लोगों के भीतर इतनी समझ और संवेदना होती है कि वे मनोरंजन और हंसने-हंसाने के नाम पर किसी को भावनात्मक चोट पहुंचाने, उसे कमतर महसूस कराने या अपमानित करने का समर्थन कतई नहीं कर सकते।
सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए टीवी के एक मशहूर कार्यक्रम के मुख्य भागीदार सहित सोशल मीडिया पर खासा असर रखने वाले पांच अन्य लोगों को भी तलब किया। आरोप है कि उन्होंने अपने कार्यक्रम में ‘स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी’ यानी एसएमए नामक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित लोगों का मजाक उड़ाया।
अदालत ने ऐसे लोगों का उपहास करने वाली जानी-मानी हस्तियों को ‘नुकसानदेह’ और ‘मनोबल को चोट पहुंचाने वाला’ करार दिया और कहा कि सुधार के लिए कुछ गंभीर कदम और दंडात्मक कार्रवाई की जरूरत है, ताकि ऐसी चीजें फिर न हों।
दरअसल, हाल के दिनों में हास्य कार्यक्रमों में जिस तरह के शब्दों, हावभाव का प्रदर्शन किया जाने लगा है, उसमें हंसने-हंसाने से ज्यादा कई बार आपत्तिजनक बातें कही जाती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर छूट लेने वाले कुछ लोग अक्सर ऐसे मौकों को कुंठा और अश्लीलता परोसने का जरिया भी बना लेते हैं। सवाल है कि अभिव्यक्ति की सीमा क्या हो, जो वास्तव में अधिकार की गरिमा को स्थापित करे और स्वस्थ विचार या हास्य को प्रसारित करने का जरिया बने।
लोकतांत्रिक चेतना वाला हास्य कलाकार अधिकारों की बात करता है, वह किसी का मजाक नहीं उड़ाता। अगर लोगों को हंसने के लिए किसी दिव्यांग या अन्य वंचित तबके का मजाक उड़ाने की जरूरत पड़ती है या उसमें कुछ असहज नहीं लगता, तो निश्चित रूप से यह अभिव्यक्ति के अधिकार का बेजा इस्तेमाल है।
ऐसी हरकतें कुछ लोगों का मनोरंजन भले करती होंगी, लेकिन उसमें समाज के किसी खास हिस्से का मजाक उड़ाने और उसे भावनात्मक चोट पहुंचाने की जो प्रवृत्ति देखी जा रही है, उसे किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता।