देश में शिक्षा की सूरत में सुधार के लिए समय-समय पर की जाने वाली तमाम कवायदों के बावजूद हालत यह है कि बहुत सारे बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। खासतौर पर जब किसी राज्य में संसाधनों की कमी न हो, फिर भी बहुत सारे बच्चे स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़ रहे हों तो यह सोचने की जरूरत है कि नीतियां बनाने और उन्हें अमल में लाने के तौर-तरीकों में क्या खामी है। गौरतलब है कि हरियाणा में जब वर्ष 2023-24 में वार्षिक परीक्षा परिणाम के आधार पर विद्यार्थियों के आंकड़ों को अद्यतन किया गया तो यह दुखद तस्वीर सामने आई कि राज्य के सभी राजकीय स्कूलों में कक्षा पहली से ग्यारहवीं तक में पढ़ने वाले चार लाख चौंसठ हजार बच्चों ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी।

इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के स्कूल छोड़ना दुखद

अगर इन बच्चों ने पुराने स्कूल को छोड़ने के बाद कहीं और दाखिला नहीं लिया, तो जाहिर है कि उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा था। ऐसे बच्चे आमतौर पर अभावों से जूझ रहे परिवारों से आते हैं। यह छिपा नहीं है कि वंचित तबकों के बच्चे कितनी जद्दोजहद से गुजर कर स्कूल के परिसर में शिक्षा हासिल करने के लिए पहुंचते हैं। ऐसे में अगर राजकीय स्कूलों से इतनी बड़ी तादाद में बच्चे बाहर निकल कर जीवन चलाने के लिए कोई अन्य रास्ता अख्तियार कर रहे हैं तो यह एक अफसोसनाक तस्वीर है।

बच्चों के स्कूल छोड़ने पर जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए

सवाल है कि किसी भी वजह से अगर इतनी भारी संख्या में बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हो रहे हैं तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आती है! बीते कई दशक में सबसे ज्यादा जोर इस बात पर रहा है कि दूरदराज तक में स्थित ग्रामीण इलाकों में रहने वाले परिवारों के ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूलों में दाखिला कराया जाए। इसका असर भी देखने में आया था।

मगर अब आर्थिक और अन्य परिस्थितियों की वजह से अगर बच्चे स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ रहे हैं तो एक तरह से यह समूचे सरकारी तंत्र की विफलता है। इसमें विकास में असंतुलन की वजह से एक ऐसा सामाजिक तबका खुद को इस बात के लिए लाचार पा रहा है कि वह अपने बच्चों को स्कूल में बिना बाधा के पढ़ा-लिखा सके।