विधायिका में महिलाओं के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण का संघर्ष अपनी मंजिल पर कब पहुंचेगा, यह कहना अब भी मुश्किल है। हर साल महिला दिवस पर तमाम महिला संगठन इस आरक्षण का मसला उठाते हैं। राजनीतिक दल या तो मीठी-मीठी बातें करते हैं या बगलें झांकते हैं, और फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है। इस बार भी महिला दिवस पर संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का मुद््दा उठा। सभी पार्टियों की महिला सांसदों ने इसकी मांग उठाई। तमाम महिला संगठन भी मुखर हुए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार से आग्रह किया कि वह लोकसभा में संबंधित विधेयक लाए, कांग्रेस समर्थन के लिए तैयार है। वाम दल तो हमेशा इस आरक्षण के पक्ष में रहे हैं। पर प्रधानमंत्री ने कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया है।

इस मुद्दे को वे बड़ी चतुराई से टाल गए। विपक्ष में रहते हुए भाजपा यह जताने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी कि वह महिला आरक्षण की प्रबल समर्थक है। वह यह भी दोहराती रही कि अगर उसे सत्ता में आने का मौका मिला, तो वह इस सिलसिले में कानून बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। पर केंद्र की सत्ता में आने के बाईस महीनों बाद भी वह इस मसले पर चुप्पी साधे हुए है। जाहिर है, अब भी वही खेल चल रहा है जो यूपीए सरकार के समय चल रहा था। यूपीए सरकार के दौरान 2010 में महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पास हो गया था।

पर यह लोकसभा की मंजूरी नहीं पा सका। नतीजतन वह विधेयक बेकार हो गया। अब नए सिरे से विधेयक लाना पड़ेगा। इसमें क्या दिक्कत है, जब भाजपा का लोकसभा में अपने दम पर बहुमत है, जिसने महिला आरक्षण का वादा कर रखा है? दरअसल, मुश्किल यह है कि तमाम पुरुष सांसद नहीं चाहते कि विधायिका में महिला आरक्षण का कानून बने, क्योंकि उन्हें यह डर सताता है कि फिर पता नहीं किस-किस को अपना निर्वाचन क्षेत्र खोना पड़ेगा। अलबत्ता पुरुष सांसदों में कुछ अपवाद हो सकते हैं, मगर मोटे तौर पर उनका रवैया यही रहा है।

दूसरी कठिनाई विधेयक के स्वरूप पर आम सहमति के अभाव की रही है। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियां यह मांग करती रही हैं कि प्रस्तावित आरक्षित सीटों में सत्ताईस फीसद सीटें पिछड़े वर्ग की, पंद्रह फीसद सीटें अनुसूचित जाति वर्ग की और साढ़े सात फीसद सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित हों। कांग्रेस और भाजपा इस मांग का विरोध करती आई हैं। पर इस मांग को ही एकमात्र बाधा बता कर विधेयक को टालते रहने का खेल कब तक चलता रहेगा? किसी और मामले में भाजपा का यह तर्क सही हो सकता है कि राज्यसभा में उसके पास बहुमत नहीं है।

पर महिला आरक्षण के मामले में वह यह दलील नहीं दे सकती। जब कांग्रेस समर्थन को तैयार है, वाम दल तो इस पर राजी हैं ही, फिर राज्यसभा की दिक्कत कहां रह जाती है? पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं को तैंतीस फीसद आरक्षण शुरू से हासिल था। बिहार ने उस आरक्षण को बढ़ा कर पचास फीसद कर दिया। फिर कई और राज्यों ने भी वैसा किया। पंचायतों तथा नगर निकायों में महिला आरक्षण को तैंतीस फीसद से बढ़ा कर पचास फीसद करने का प्रावधान अब पूरे देश में हो गया है। संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के लिए राजनीतिक आम सहमति कब बनेगी?