मध्यप्रदेश बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में वैसे तो हजारों विद्यार्थी बैठेंगे, लेकिन एक इनमें सबसे खास है गुरदीप कौर वासु। इंदौर की रहने वाली बत्तीस साल की गुरदीप मूक, बधिर और नेत्रहीन है। वह किसी के हाथों और अंगुलियों को दबा कर उससे संकेतों की भाषा में बात करती है। इसी तरह वह परीक्षा में भी प्रश्नों के उत्तर देगी। गुरदीप कुछ बनना चाहती है और इसके लिए पढ़ना चाहती है।

दिव्यांगों के लिए काम करने वाली शहर की एक गैरसरकारी संस्था ने उसकी मदद की और विशेष कक्षाएं लेकर उसे परीक्षा के लिए तैयार किया। माना जा रहा है कि मध्यप्रदेश में यह अब तक का पहला मामला है, जिसमें देखने, सुनने और बोलने में अक्षम कोई उम्मीदवार परीक्षा में बैठेगा।

तमाम दिव्यांगताओं के बावजूद पढ़ाई के लिए गुरदीप की ललक को देखते हुए शिक्षा विभाग ने तय किया है कि परीक्षा के दौरान उसे एक सहायक लेखक मुहैया कराया जाएगा, जो संकेत भाषा का जानकार होगा, ताकि उसके उत्तर को उत्तर पुस्तिका में दर्ज किया जा सके।

मध्यप्रदेश शिक्षा बोर्ड और इंदौर के गैरसरकारी संगठन के प्रयास सराहनीय हैं। प्रयास यह होना चाहिए कि सिर्फ गुरदीप नहीं, बल्कि दिव्यांगता से पीड़ित जितने भी बच्चे हैं, उन्हें शिक्षित कर रोजगार के लायक बनाया जाए। सरकारी स्तर पर दिव्यांगों के लिए इक्का-दुक्का संस्थानों को छोड़ कर कुछ नहीं दिखता, जबकि देश में दो करोड़ अड़सठ लाख लोग किसी न किसी तरह की दिव्यांगता से पीड़ित हैं।

इसमें भी एक करोड़ अठारह लाख महिलाएं हैं और देश में लैंगिक समानता की जो स्थिति है, उसमें समझा जा सकता है कि परिस्थितियां इनके लिए कितनी विषम होंगी। एक समाज के रूप में हम दिव्यांगों के प्रति कितने संवेदनशील हैं, वह आम बोलचाल में दिव्यांगता को लेकर इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों से समझा जा सकता है।

प्रोत्साहन के तौर पर इन्हें स्कूली संस्थानों में दाखिले में आरक्षण, और रेलवे के टिकटों में रियायत जैसी चीजें दी जाती हैं, लेकिन इसके लिए भी उन्हें सभी जगह दिव्यांगता का प्रमाणपत्र दिखाना होता है। दिव्यांगता से पीड़ित लोगों का जीवन इन चंद रियायतों से आसान नहीं होने वाला। जरूरत है कुछ ऐसा करने की, जिससे उनका सशक्तिकरण हो सके।

यानी रोजगार के लायक बनाने लायक शिक्षा। गुरदीप को फिर भी भाग्यशाली माना जा सकता है कि उसे एक गैरसरकारी संगठन की मदद मिल गई, पर न जाने कितनी गुरदीप ऐसी होंगी, जिनके सपनों को पंख नहीं मिल पाए होंगे।

गुरदीप के हौसले बताते हैं कि जिजीविषा और जीवट में इतनी शक्ति है कि वह बड़ी से बड़ी बाधाओं से भी पार पा सकती है। यह उसी बात को रेखांकित करता है कि प्रतिकूल स्थितियां हमारी मजबूतियों और आंतरिक शक्ति को सामने लाती हैं। यह एक सबक है उन छात्रों के लिए, जो एक प्रयास में अनुत्तीर्ण हो जाने पर, कम अंक आने या डाक्टरी, इंजीनियरिंग जैसे मनपसंद पाठ्यक्रम में दाखिला न मिलने पर आत्महत्या जैसा रास्ता चुन लेते हैं।

हताशा से उबर कर, नए सिरे से, नई उर्जा के साथ लक्ष्य को हासिल करने के प्रयासों को ही जिजीविषा कहते हैं। जीवन में अगर कुछ भी नहीं हो तो उसमें राग और आकर्षण पैदा करने की कला सीखनी होगी। फिर इच्छाशक्ति के सहारे तमाम बाधाएं पार की जा सकती हैं। संसार ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब तमाम विपरीत परिस्थितियों और शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद लोगों ने महान उपलब्धियां हासिल की हैं।