इसमें दोराय नहीं कि अच्छी और निर्बाध सड़कें विकास के लिए अनिवार्य मानक हैं। पर ऐसी सड़कें अगर रफ्तार के बरक्स सफर करने वालों की जिंदगी को जोखिम में डालने का कारक बनती हैं, तो इसका मतलब है कि ऐसी सड़कों पर बचाव के उपायों का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा गया है।

यह छिपा नहीं है कि राजमार्ग या लंबी दूरी वाले एक्सप्रेस-वे ने लोगों की यात्रा को आसान और समय बचाने वाला बनाया है, मगर इसके साथ-साथ ऐसी सड़कों पर होने वाले हादसे और उसमें मरने वालों की दर भी तेजी से बढ़ी है।

सोमवार को एक मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर सड़क हादसों में इतने लोगों की जान जा रही है, तो बड़े-बड़े राजमार्गों के निर्माण का क्या उद्देश्य है। अदालत ने केंद्र सरकार से सड़क हादसों में नकदीरहित इलाज की योजना के अब तक लागू न होने को लेकर भी सवाल पूछे।

अव्वल तो सड़क सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी है, चाहे उसके लिए नियम-कायदे बनाना हो या फिर लोगों के भीतर जिम्मेदारी से वाहन चलाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान चलाना। दूसरे, अगर किन्हीं हालात में हादसे होते हैं तो उसके बाद हताहतों के जीवन को बचाना सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। यह तथ्य है कि सड़क दुर्घटना में अगर कोई घायल हो जाता है तो उसके बाद के एक घंटे का वक्त यानी ‘गोल्डन आवर’ उसके जीवन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होता है।

इस अवधि में अगर उसे उचित इलाज मिल जाए तो उसकी जान बच सकती है। मगर हकीकत यह है कि लंबी दूरी के राजमार्गों या एक्सप्रेस-वे तो बना दिए गए हैं, लेकिन हादसे की स्थिति में घायलों को समय पर इलाज मुहैया कराने के लिए अस्पताल की व्यवस्था से लेकर वहां पहुंचाए जाने के जरूरी इंतजामों की अनदेखी की जाती है।

सवाल है कि अगर सरकार ने हादसे के बाद एक घंटे की बेशकीमती अवधि में नकदीरहित इलाज का भरोसा दिया है, तो व्यवहार में उसे लागू करने में उसे क्या दिक्कत है। सड़क हादसों में अनेक ऐसे लोगों की भी मौत हो जाती है, जिन्हें समय पर इलाज मुहैया करा कर बचाया जा सकता था।