सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की आजादी को रेखांकित करते हुए केंद्र सरकार को नसीहत दी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के हवाई दावों के जरिए मीडिया पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने करीब डेढ़ साल पहले एक मलयालम टीवी चैनल का नवीकरण यह कहते हुए रोक दिया था कि उसका संचालन राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है।
केरल उच्च न्यायालय ने भी केंद्र के उस फैसले को उचित ठहराया था। तब चैनल के प्रबंधकों ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष गुहार लगाई थी और उसने फैसला आने तक चैनल को अपना प्रसारण जारी रखने की इजाजत दे दी थी। अब उस मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी चैनल का नवीकरण न करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है।
किसी चैनल या मीडिया संस्थान पर इसलिए रोक नहीं लगाई जा सकती कि वह सत्ता के विरोध में विचार प्रकाशित-प्रसारित करता है। सरकार की आलोचना राज्य की आलोचना नहीं होती। सरकार की नीतियों के खिलाफ विचार प्रकट करना मीडिया का धर्म है और इसी से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। अगर सरकार इसलिए किसी चैनल पर प्रतिबंध लगा देती है कि वह उसके विरोध में विचार प्रकट करता है, तो इससे यह ध्वनित होता है कि सरकार केवल उन्हीं संचार माध्यमों को चलने देना चाहती है, जो उसके पक्ष में खबरें या वैचारिक सामग्री परोसते हैं।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय को भी आड़े हाथों लिया और बंद लिफाफे में सरकार की तरफ से पेश किए गए साक्ष्यों पर एतराज जताया। गौरतलब है कि बंद लिफाफे में सुझाव या साक्ष्य पेश करने पर सर्वोच्च न्यायालय कई मौकों पर तल्ख टिप्पणी कर चुका है और उसकी स्प्ष्ट राय है कि कोई भी दस्तावेज गोपनीय तरीके से पेश नहीं किया जाना चाहिए, उसे सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने आने देना चाहिए।
फिर संबंधित चैनल पर यह भी आरोप था कि उसके मालिकों में से अधिकतर का संबंध जमात-ए-इस्लामी-हिंद से है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस आरोप को खारिज करते हुए कहा कि इससे मीडिया के अधिकारों को बाधित नहीं किया जा सकता। स्वाभाविक ही, अदालत के इस फैसले से अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर एक और नजीर कायम हुई है।
यह ठीक है कि मीडिया की आजादी का हमारे संविधान में उस तरह स्पष्ट उल्लेख नहीं है, जिस तरह अमेरिका आदि लोकतांत्रिक देशों में है, मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत मीडिया को यह अधिकार मिला हुआ है। इस तरह के अनेक फैसलों से मीडिया की स्वतंत्रता रेखांकित हुई है और उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में स्वीकृति प्राप्त है।
मगर सरकारें अक्सर मीडिया की निष्पक्षता और सरकारी नीतियों, फैसलों के विरुद्ध मुखरता से असहज महसूस करती देखी जाती हैं। उन पर अंकुश लगाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती रही हैं। ऐसे अखबारों और समाचार चैनलों के हिस्से का विज्ञापन रोकना सरकारों का आसान हथकंडा है, जो उसके खिलाफ लिखते-बोलते हैं।
इसे लेकर भी कुछ अखबारों ने कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। तब भी अदालत ने सरकारों को ऐसी ही कड़ी फटकार लगाई थी। पिछले कुछ सालों से मीडिया की भूमिका को लेकर निराशा प्रकट की जाती रही है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ मीडिया के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की है, बल्कि यह भी संकेत दिया है कि उन्हें सरकार के फैसलों पर अपनी निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह करना चाहिए।