हमारे समाज में जातिगत भेदभाव से जुड़ी धारणा की जड़ें इतने गहरे तक फैली हुई हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद ये आज भी समूल नष्ट नहीं हो पाई है। शहरों में भले ही अब इसका असर कम होने लगा है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में हालात जस के तस बने हुए हैं। हालांकि, देश में शिक्षा के स्तर पर काफी तरक्की हुई है, मगर यह उन्नति भी अपेक्षा के अनुरूप सामाजिक सोच में बदलाव की वाहक नहीं बन पाई है।

इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पुलिस के दस्तावेजों में आरोपियों का जातिगत ब्योरा दर्ज नहीं करने समेत अन्य संबंधित आदेशों को जाति के आधार पर भेदभाव खत्म करने और समाज में समानता लाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।

राज्य सरकार ने वाहनों पर जाति-आधारित स्टिकर लगाने या नारे लिखने को भी प्रतिबंधित कर दिया है। नियमों का उल्लंघन करने वालों पर मोटर वाहन अधिनियम के तहत जुर्माना लगाने का प्रावधान किया गया है। यानी अब अपनी जाति का प्रदर्शन कर दूसरों पर धौंस जमाने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई होगी, जो निश्चित तौर पर सराहनीय निर्णय है।

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दरअसल, जातिगत भेदभाव न केवल व्यक्ति को सामाजिक और मानसिक स्तर पर चोट पहुंचाता है, बल्कि उसके आर्थिक, नैतिक और सांस्कृतिक हित भी प्रभावित होते हैं। समाज और व्यवस्था में जातिगत पूर्वाग्रह के कारण पीड़ित व्यक्ति को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में सरकार का यह आदेश हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले के अनुपालन में लिया गया है।

सरकारी आदेश में कस्बों और गांवों में ऐसे बोर्ड या संकेतों को हटाने के लिए भी कहा गया है, जो जातिगत पहचान को इंगित करते हैं या किसी क्षेत्र को जाति विशेष से संबंधित बताते हैं। माना जाता है कि कुछ लोग समाज में अपना दबदबा बनाने के लिए इस तरह के संकेतों का इस्तेमाल करते हैं, जो वास्तव में जाति के आधार पर भेदभाव पैदा करता है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में हुई पहल को देश के दूसरे इलाकों में भी उतारने की कोशिश होनी चाहिए, ताकि जाति से जुड़ी ग्रंथियों को और उसके आधार पर जारी भेदभाव को खत्म करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें।