बिहार में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सत्ताधारी और विपक्षी दलों की ओर से मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए घोषणाओं और वादों का सिलसिला जारी है। जनता अपना समर्थन किस राजनीतिक दल या पक्ष को दे, यह इस पर निर्भर करता है कि वह किसे अपने या व्यापक हितों के अनुकूल समझती है। यह लोकतंत्र का एक जीवन-तत्त्व है कि राजनीतिक पार्टियां सत्ता हासिल करने के लिए जनता के हितों को केंद्र में रखें।

मगर इस क्रम में पिछले कुछ वर्षों में हुआ यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दल ऐन चुनावों के वक्त आम लोगों के सामने उनके हित के नाम पर ऐसे वादे करती हैं कि साधारण मतदाता कई बार सभी पक्षों की ईमानदारी का समग्र मूल्यांकन करने के बजाय तात्कालिक घोषणाओं से प्रभावित हो जाते हैं। इसका स्वाभाविक असर मतदान पर पड़ता है, लेकिन यह समझने की कोशिश नहीं की जाती कि चुनावी सौदेबाजी से देश की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक शुचिता किस तरह प्रभावित होती है।

महिलाओं को दी गई दस-दस हजार रुपए की राशि

बिहार में वोट जुटाने के मकसद से सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और विपक्षी महागठबंधन की ओर से मतदाताओं को रिझाने के लिए कई तरह की सौगात देने की घोषणाएं की गई हैं। अगर वे सचमुच पूरी होती हैं, तो इसके लिए संसाधन कहां से आएंगे, इसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, इसे लेकर किसी में चिंता नहीं दिखाई देती है। मसलन, चुनावों को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत करीब सवा करोड़ महिलाओं को दस-दस हजार रुपए की राशि दी गई, जिससे राज्य के खजाने से बारह हजार करोड़ रुपए से ज्यादा व्यय हुए।

ट्रंप के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर क्यों उतरे लाखों अमेरिकी?

इसी तरह, बड़ी संख्या में उपभोक्ताओं को मुफ्त बिजली, जीविका, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय में बढ़ोतरी की घोषणा की गई। दूसरी ओर, विपक्षी महागठबंधन की ओर से सबसे बड़ी घोषणा हर परिवार से एक को सरकारी नौकरी देने की हुई। इसके अलावा, हर जीविका दीदी को तीस हजार रुपए वेतन और अस्थायी कर्मचारियों को नियमित करने का वादा किया गया।

बिहार में व्यापक बेरोजगारी बनी हुई है गंभीर समस्या

जो घोषणाएं सत्ता और विपक्षी दलों ने बिहार के लोगों के लिए की हैं, उनकी जरूरत दरअसल इसलिए पड़ी कि राज्य में अब तक जरूरत के मुताबिक सरकारी कल्याण कार्यक्रम पूरे नहीं किए गए, व्यापक बेरोजगारी गंभीर समस्या बनी हुई है और एक बड़ी आबादी के लिए अभाव का सामना करना एक रोजमर्रा की मुश्किल है। सवाल है कि सभी दलों को आखिर इस तरह के वादे या घोषणाएं करने की जरूरत तभी क्यों पड़ती है, जब चुनाव सिर पर होते हैं। सत्ता में रहते हुए उनकी प्राथमिकताएं आम जनता के बजाय कुछ और क्यों हो जाती हैं?

धनी देशों का गंदा सच, गरीब देशों को बना रहे हैं ई-कचरे का स्टोर हाउस

यह एक आम हकीकत है कि अगर सरकार के सामने बेरोजगारी या अन्य समस्याओं का जिक्र किया जाता है, तो वह धन की कमी का रोना रोने लगती है। फिर चुनावी सौदेबाजी के तहत परोसी जाने वाली मुफ्त की सुविधाओं के लिए धन और संसाधन कहां से आ जाते हैं? हालांकि एक पक्ष यह भी है कि अगर कोई भी सरकार ईमानदार इच्छाशक्ति के साथ काम करे, तो वह नागरिकों को आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के लिए बिना अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाए सब कुछ कर सकती है, लेकिन यह इस पर निर्भर करता है कि कल्याण कार्यक्रमों का स्वरूप क्या है। अगर कोई सुविधा आम जनता को मुफ्त मुहैया कराई जाती है तो किसी न किसी रूप में उसकी कीमत लोगों को ही चुकानी पड़ती है।