संवैधानिक संस्थाओं की साख इस बात से बनती है कि वे कितनी स्वायत्त रह कर काम कर पाती हैं। उनके मुखिया किस तरह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करते हैं। मगर विडंबना यह है कि लंबे समय से कुछ संस्थाओं के कामकाज के तौर-तरीके पर अंगुलियां उठती रही हैं। उनके सरकार के पक्ष में झुक कर या उसके दबाव में काम करने के आरोप लगते रहे हैं।
पिछले कुछ समय से निर्वाचन आयोग पर भी विपक्षी दल यही आरोप लगाते आ रहे हैं कि वह सरकार के इशारों पर काम करता है। ऐसे में निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और वहां पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने व्यवस्था दी कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और प्रधान न्यायाधीश की समिति की सिफारिश पर की जाएगी।
इस व्यवस्था का चौतरफा स्वागत हुआ और उम्मीद बनी थी कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में पारदर्शिता आएगी, इस संस्था की साख फिर से लौटेगी। हालांकि संविधान पीठ ने यह व्यवस्था तभी तक के लिए दी थी, जब तक कि सरकार इस संबंध में संसद में कानून नहीं बना लेती। अब सरकार ने इससे संबंधित विधेयक राज्यसभा में पेश कर दिया है।
इस विधेयक के पेश होते ही सरकार फिर से विपक्ष के निशाने पर आ गई है। विधेयक में प्रावधान प्रस्तावित है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और प्रधानमंत्री द्वारा चुने गए एक केंद्रीय मंत्री की समिति की सिफारिश पर की जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय की दी हुई व्यवस्था में से प्रधान न्यायाधीश को हटा दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि सरकार जिसे चाहेगी, उसे मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त कर लेगी।
इस तरह मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दूसरे आयुक्तों के सरकार के दबाव से मुक्त होकर काम करने पर संदेह बना रहेगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचन आयोग की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। अगर मुख्य निर्वाचन आयुक्त का झुकाव सरकार की तरफ होता है, तो चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता संदिग्ध हो जाती है, जैसा कि पिछले कुछ चुनावों से आरोप लगते रहे हैं।
सत्तापक्ष के प्रति नरमी और विपक्षी दलों के खिलाफ सख्ती के उसके पक्षपातपूर्ण फैसलों के अनेक उदाहरण दिए जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी टिप्पणी की थी कि निर्वाचन आयोग में टीएन शेषन जैसे आयुक्त की नियुक्ति होनी चाहिए। ऐसे में जब सरकार ने अपने बहुमत का ध्यान रखते हुए विधेयक तैयार किया है, तो उस पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
यह तो ठीक है कि सर्वोच्च न्यायालय कानूनी प्रक्रियाओं का मूल्यांकन संविधान की भावना को ध्यान में रखते हुए करता और अपनी कोई व्यवस्था देता है। मगर वह व्यवस्था स्थायी नहीं होती, उसे संसद में कानूनी शक्ल देना पड़ता है। यह काम सरकार ही कर सकती है। ऐसे में अपेक्षा की जाती थी कि सरकार जनभावनाओं के मद्देनजर संविधान पीठ की दी हुई व्यवस्था को ही कानूनी जामा पहना देती।
मगर पिछले कुछ समय से जिस तरह उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति, दिल्ली में प्रशासन के अधिकार आदि को लेकर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच तनातनी का माहौल बना हुआ है, सरकार कई मौकों पर सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां कर चुकी है, उसमें उससे ऐसी उदारता को लेकर संदेह जताया जा रहा था। अब संख्याबल से सरकार बेशक निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी विधेयक को कानूनी शक्ल दे दे, पर संवैधानिक भावना और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उसकी निष्ठा प्रश्नांकित होती रहेगी।