अब यह स्पष्ट हो गया है कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी राकांपा आधिकारिक रूप से किस गुट के हिस्से रहेगी, मगर प्रतिस्पर्धी समूहों के बीच राजनीतिक दांवपेच और खींचतान के समांतर यह सवाल भी उठा है कि किसी पार्टी पर अपना पक्ष बदलने वाले समूह का नियंत्रण हो या उस दल के बचे हुए मूल सदस्यों का। गौरतलब है कि अब शरद पवार गुट की पार्टी का नया नाम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) होगा और चुनाव आयोग ने इसकी मंजूरी दे दी है।
अजित पवार के गुट को ही असली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी माना
हालांकि चुनाव आयोग ने लंबे विचार-विमर्श के बाद अपने फैसले में शरद पवार से अलग हुए अजित पवार और उनके गुट को ही असली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी करार दिया था और उसका चुनाव चिह्न भी उसे ही सौंपा था। इसलिए माना जा सकता है कि आयोग के पास ऐसे निर्णय तक पहुंचने के अपने आधार होंगे। सवाल यह है कि जिन लोगों ने काफी मेहनत से कोई पार्टी खड़ी की होती है, उसे एक विचारधारात्मक पहचान दिया होता है, क्या उनके पक्ष की कोई अहमियत नहीं होती है? इस तरह के मामलों में चुनाव आयोग के फैसलों पर भी संबंधित गुट की ओर से अंगुली उठाई जाती है।
दरअसल, कुछ समय पहले शिवसेना में बंटवारे के संदर्भ में भी चुनाव आयोग ने लगभग इसी तरह का फैसला दिया था, जिसमें एकनाथ शिंदे के गुट को असली शिवसेना करार दिया गया। इस पर उद्धव ठाकरे और उनके सहयोगियों ने निराशा जताई थी। देश की राजनीति में दल-बदल एक आम चलन बन चुका है और लोकतंत्र में इसे अपने-अपने चुनाव के अधिकार के तौर पर देखा जाता है। हालांकि ऐसे मामलों में अक्सर सैद्धांतिक सवाल उठते रहते हैं, मगर शायद ही कभी इनका असर पड़ता है।
बाद में संख्या बल या अन्य किसी तकनीकी आधार पर पार्टी से निकले समूह को ही वास्तविक दल घोषित कर दिया जाता है। फिर बाकी बचे हुए उन सदस्यों के सामने नए सिरे से राजनीतिक अस्तित्व हासिल करने की चुनौती होती है, जिन्होंने एक समय में पार्टी को खड़ा किया होता है। यह एक विचित्र विडंबना है, जिसमें चुनाव आयोग के एक फैसले के साथ ही विचारधारा और नेतृत्व की पहचान से भावनात्मक रूप से जुड़े जनसमूह के सामने कई बार द्वंद्व की स्थिति खड़ी हो जाती है।