लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जिस तरह बढ़-चढ़ कर प्रचार-प्रसार किया जाता है, उससे यही लगता है कि ज्यादातर लोग मतदान करने निकलेंगे। मगर हर बार मतदान का आंकड़ा बहुत उत्साहजनक नहीं रहता है। कई इलाकों में तो कुल मतदाताओं का आधा भी मतदान केंद्रों तक नहीं पहुंचता है।

ऐसे में डाले गए मतों के आधार पर ही किसी सीट पर उम्मीदवारों की जीत और हार का फैसला होता है। जबकि संभव है कि मतदान का फीसद ऊंचा हो तो उसमें नतीजों का स्वरूप कुछ और सामने आए। हालांकि निर्वाचन आयोग की तरफ से भी मतदाताओं को मतदान में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, लेकिन ये सारी कवायदें जमीन पर उतरती नहीं दिखती हैं। लोकतांत्रिक अपेक्षाओं और कसौटियों के लिहाज से यह एक चिंताजनक स्थिति है।

कम मतदान की समस्या से चिंतित निर्वाचन आयोग ने इस बार के आम चुनाव में देश के ग्यारह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की दो सौ छियासठ सीटों की पहचान की है, जहां पिछले आम चुनाव में मतदान का फीसद राष्ट्रीय औसत यानी 67.40 से भी कम रहा था। इन सीटों में दो सौ पंद्रह ग्रामीण और इक्यावन शहरी संसदीय क्षेत्र शामिल हैं।

अब आयोग ने खासकर इन सीटों पर मतदान के फीसद में बढ़ोतरी की कोशिशें तेज कर दी हैं। यों देश भर में अगर सिर्फ दो तिहाई मतदाता अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग कर पाते हैं, तो यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि लोकसभा की लगभग आधी सीटों पर इससे भी कम मतदान होता है।

समझा जा सकता है कि उन इलाकों में जीतने वाले उम्मीदवार कितने लोगों की नुमाइंदगी करते होंगे। लोकतंत्र में मतदान के अधिकारों के प्रति जागरूकता में कमी या अन्य वजहों से अगर इतनी बड़ी तादाद में मतदाता चुनाव प्रक्रिया से बाहर रह जाते हैं, तो यह सोचने की जरूरत है कि शासन के ढांचे में कुल कितनी आबादी की भागीदारी है। ऐसी स्थिति में मतदान का फीसद बढ़ाने के लिए निर्वाचन आयोग की कोशिशें स्वागतयोग्य हैं, लेकिन इसका वास्तविक नतीजा भी जमीन पर भी दिखना चाहिए।