हमारे देश में परिवार और समाज की जैसी परंपरा रही है, उसमें कई बार ऐसी बातों पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि कोई संतान ही अपने माता-पिता की न सिर्फ संवेदनात्मक जरूरतों, बल्कि अधिकारों तक से वंचित करने की कोशिश करने लगती है। ऐसे में सरकार और अन्य संबंधित महकमों का दखल जरूरी होता है, ताकि एक नागरिक के रूप में बुजुर्गों के अधिकारों का हनन रोका जा सके।
इस लिहाज से देखें, तो हरियाणा मानवाधिकार आयोग ने उचित ही एक बुजुर्ग दंपति के पक्ष में निर्देश जारी करते हुए कहा है कि माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम, 2007 के तहत वरिष्ठ नागरिक अपने बच्चों से भरण-पोषण का दावा करने के हकदार हैं और धारा-23 के तहत देखभाल की शर्त पर हस्तांतरित की गई किसी भी संपत्ति को देखभाल नहीं किए जाने की स्थिति में अमान्य घोषित किया सकता है। साथ ही, धारा- 24 के तहत वरिष्ठ नागरिक को त्याग देना दंडनीय अपराध है।
आवासीय संपत्ति का स्वामित्व हस्तांतरित करने के लिए दबाव डाला गया
गौरतलब है कि हरियाणा के पंचकूला में अपने बेटे और बहू के साथ एक घर में रहने के बावजूद एक बुजुर्ग दंपति को अलग-थलग रखा गया, उन्हें अपशब्द कहे गए, उनकी आवासीय संपत्ति का स्वामित्व हस्तांतरित करने के लिए दबाव डाला गया, झूठा मामला दर्ज कराया गया और उनसे वृद्धाश्रम तक चले जाने को कहा गया।
भारतीय समाज में वृद्धों की उपेक्षा और जीवन के अंतिम चरण की चुनौतियां
समाज जैसे-जैसे आधुनिक होता जा रहा है, उसमें उम्मीद इस बात की भी थी कि वह मानवीय मूल्यों को भी समृद्ध करेगा। मगर वक्त के साथ हुआ यह है कि माता-पिता के त्याग की नींव पर सभी तरह की सुख-सुविधाएं हासिल करने वाली नई पीढ़ी मां-पिता का न्यूनतम खयाल रखना भी जरूरी नहीं समझती।
दूसरी ओर, परिवारों में कई स्तर पर उपेक्षा झेलने वाले बुजुर्गों के लिए ऐसे वृद्धाश्रम भी गिनती के हैं, जहां वे कम से कम संतोषजनक तरीके से अपना बचा जीवन काट सकें। यह एक अफसोसनाक तस्वीर है कि माता-पिता अपने जिन बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपनी जिंदगी झोंक देते हैं, उनके सुख के लिए अपने जीवन की न्यूनतम सुविधाओं तक को छोड़ देते हैं, वे बुढ़ापे का सहारा बनने के बजाय कई बार उनके लिए दुख का कारण बन जाते हैं।