देशभर में लाखों बच्चे अगर परीक्षाओं में विफल हो रहे हैं, तो इसकी वजह क्या है? क्या इसे गंभीर चुनौती मान लेने भर से इस समस्या का निवारण हो जाएगा? क्या यह जानने का प्रयास नहीं होना चाहिए कि शिक्षा में गुणवत्ता आखिर कहां कम रह गई और इसकी वजह क्या थी? विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा नहीं मिल पा रही है, तो जाहिर है कि पूरी व्यवस्था को अब दुरुस्त करने की जरूरत है। केवल चिंता जता देने और सतही कदम उठा लेने भर से काम नहीं चलेगा।

फिलहाल तथ्य यही है कि देश में दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं में हर वर्ष करीब पचास लाख विद्यार्थी विफल हो रहे हैं। इनमें अधिकतर विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देते हैं। खासतौर से लड़कियां विद्यालय नहीं लौटतीं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के लड़के परिवार का बोझ उठाने के लिए काम करने लग जाते हैं। यह शिक्षा व्यवस्था की नाकामी तो है ही, वहीं शिक्षित भारत बनाने के लक्ष्य पर भी आघात है।

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इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थियों की विफलता बताती है कि विद्यालयी शिक्षा को हम गंभीरता से नहीं ले रहे। अब केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने इसे गंभीर चुनौती मानते हुए ऐसे विद्यार्थियों को दोबारा मुख्यधारा से जोड़ने की पहल की है। इसके तहत राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान को जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह विद्यार्थियों तक पहुंचे और उन्हें पढ़ाई बीच में न छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करे।

मगर सच यह है कि पिछले कई वर्षों से शिक्षा के दूरगामी लक्ष्यों पर ध्यान नहीं दिया गया है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों का अभाव किसी से छिपा नहीं है। कई राज्यों में तो कहीं-कहीं एक या दो शिक्षकों के भरोसे विद्यालय चलने की खबरें आई हैं। आए दिन शिक्षकों को शिक्षण कार्य से अलग दूसरे कार्यों में लगा दिया जाता है।

मध्याह्न भोजन योजना से लेकर जनगणना, आधार सत्यापन और चुनावी कार्य में उन्हें उलझाए रखना कोई नई बात नहीं। ऐसे में बच्चों को शिक्षा देने का मूल कार्य प्राय: हाशिये पर चला जाता है। उनका पाठ्यक्रम तक पूरा नहीं होता और वे पढ़ाई में निरंतर पिछड़ते चले जाते हैं।

देश में ऐसा परिदृश्य बन रहा है, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार इस स्थिति से अनजान नहीं है। उसे इस दिशा में सतही उपाय करने के बजाय ठोस कदम उठाने होंगे।