सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों और सहायक कर्मियों की लापरवाही और संसाधनों के अभाव के चलते मरीजों के मरने की खबरें आती रहती हैं। लेकिन सरकार और संबंधित महकमों की नींद तब तक नहीं खुलती, जब तक कोई बड़ा हादसा सामने न आ जाए। इसी रवैए का नतीजा है कि रविवार को लुधियाना के सरकारी अस्पताल में घोर लापरवाही की वजह से पांच नवजात बच्चों की जान चली गई, जिन्हें बचाया जा सकता था। अब कहा जा रहा है कि वहां विशेषज्ञों और जरूरी चिकित्सीय उपकरणों का अभाव है। लेकिन खबरों के मुताबिक जिस महिला चिकित्सक की उस वक्त ड्यूटी थी, वे अस्पताल से गैरहाजिर थीं और जब स्थिति ज्यादा बिगड़ने लगी तब बार-बार फोन पर सूचना देने के बावजूद वे काफी देर से अस्पताल पहुंचीं। तब तक चार नवजात बच्चों की मौत हो चुकी थी। उस चिकित्सक की गैरहाजिरी में चार महिलाओं का प्रसव वहां की नर्सों ने कराया। प्रसव के पांचवें मामले में एक विशेषज्ञ डॉक्टर को घर से बुलाया गया, जो ड्यूटी पर नहीं थीं। विचित्र यह है कि ड्यूटी के बावजूद नदारद चिकित्सक ने अपने बचाव में कहा है कि वह पहले पहुंचतीं तब भी बच्चों को नहीं बचाया जा सकता था, जिन महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल में लाया गया, उनकी हालत पहले से नाजुक थी। किसी को बचाया जा सके या नहीं, डॉक्टर का काम ड्यूटी के वक्त मौजूद रहना और अपना फर्ज निभाना है। जब मामले ने तूल पकड़ा तो राज्य के स्वास्थ्यमंत्री ने बताया कि कुछ दिन पहले ही, लापरवाही के अन्य मामले में उस डॉक्टर के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया गया था। फिर अस्पताल प्रबंधन और अधिकारियों ने किस आधार पर दूसरे मरीजों को उसी चिकित्सक के भरोसे छोड़ दिया; ड्यूटी के दौरान उसे गैरहाजिर रहने की छूट कैसे मिली!
दरअसल, यह मनमानी का इक्का-दुक्का मामला नहीं है। समूची सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था ही इसी रंग में रंगी हुई है, जिसे सरकारी अस्पतालों में पहुंचने वाले लोगों की बहुत फिक्र नहीं होती। छत्तीसगढ़ के नसबंदी कांड में गरीब तबके के प्रति सरकारी चिकित्सातंत्र की निष्ठुरता का आलम हम देख चुके हैं। किसी साधारण से लेकर गंभीर बीमारी और प्रसव जैसे नाजुक मामलों तक के लिए भी सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहने वाले लोग समाज के कमजोर तबकों के होते हैं। उपेक्षा का दंश वे चुपचाप सहते रहते हैं। वे आमतौर पर शिकायत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। उनकी यह असहायता दूर की जा सकती है, बशर्ते राज्य सरकारें सरकारी अस्पतालों के कामकाज पर नजर रखें। डॉक्टरों, चिकित्सीय उपकरणों या दूसरे जरूरी संसाधनों का अभाव निश्चित रूप से सरकारी अस्पतालों की एक बड़ी समस्या है। लेकिन जो डॉक्टर हैं भी, उनके ड्यूटी पर मौजूद रहने और कोताही न बरतने की व्यवस्था कौन सुनिश्चित करेगा? सभी जानते हैं कि सरकारी नियुक्ति के बावजूद डॉक्टर किस तरह अपनी निजी प्रैक्टिस को प्राथमिकता देते हैं। कर्तव्य में कोताही सरकारी अस्पतालों में रोज की बात है। लेकिन जब कोई त्रासदी घटित होती है तब भी किसी डॉक्टर के खिलाफ जांच बिठाने या कारण बताओ नोटिस जारी करने से ज्यादा कुछ नहीं होता। यह सही है कि बदइंतजामी और संवेदनहीनता दूसरी सेवाओं में भी कम नहीं है, लेकिन चिकित्सा के मामले में यह कई बार जानलेवा साबित होती है। यह पाठ सरकारी अस्पतालों को कौन पढ़ाएगा!
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta