जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की तरफ से हर साल जारी होने वाले वैश्विक भूख सूचकांक में इस बार भारत की हालत थोड़ी सुधरी है। छिहत्तर देशों की सूची में यह पचपनवें स्थान पर है, जबकि पिछली बार तिरसठवें स्थान पर था। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक भारत अब भी ज्यादा शोचनीय स्थिति वाले देशों की कतार में खड़ा है। पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत की हालत बांग्लादेश और पाकिस्तान से तनिक बेहतर है, इनसे वह दो पायदान ऊपर है। पर दूसरी ओर, नेपाल और श्रीलंका से भारत काफी पीछे है। श्रीलंका उनतालीसवें स्थान पर है तो नेपाल चौवालीसवें पर। दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी है। कुल राष्ट्रीय आय में दक्षिण एशिया का कोई और देश इसके सामने कहीं नहीं ठहरता। मगर जैसे ही आम लोगों के जीवन-स्तर की कसौटी पर कोई अध्ययन सामने आता है, राष्ट्रीय आय का पैमाना अकारथ दिखने लगता है। कई बार प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़े आते हैं, पर उनसे हकीकत का पता नहीं चलता, क्योंकि वह एक औसत तस्वीर होती है, जिसमें अरबपतियों से लेकर कंगालों तक, सबकी आय शामिल होती है।
जब संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट या वैश्विक भूख सूचकांक जैसी रिपोर्टें आती हैं, तो पता चलता है कि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और विकास के तमाम दावों के बरक्स हम कहां खड़े हैं। इस सूचकांक में चीन पांचवें नंबर पर है, यानी भारत से पचास स्थान ऊपर। जबकि भारत घाना और मलावी जैसे अफ्रीका के गरीब देशों से भी काफी पीछे है। यह स्थिति तब है जब भारत इस सूचकांक में आठ पायदान ऊपर चढ़ा है।
ध्यान रहे, यह पूरे भारत की औसत तस्वीर है। अगर राज्यों के अलग-अलग आकलन सामने आएं तो देश के कुछ राज्यों की हालत इस सामान्य स्थिति से बदतर होगी। बहरहाल, रिपोर्ट के मुताबिक भारत की हालत में थोड़ा सुधार दर्ज होने का कारण यह है कि पांच साल तक के बच्चों में कुपोषण की व्यापकता कम करने में वह सफल हुआ है। रिपोर्ट ने इसके लिए मिड-डे मील, एकीकृत बाल विकास, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा जैसे कार्यक्रमों को श्रेय दिया है। अगर ये योजनाएं भ्रष्टाचार और बदइंतजामी की शिकायतों से मुक्त होतीं और इन्हें पर्याप्त आबंटन मिलता, तो भारत की स्थिति और सुधरी हुई होती। सर्वोच्च न्यायालय मिड-डे मील के अपर्याप्त आबंटन पर कई बार सरकारों को फटकार लगा चुका है। पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। कुपोषण में कमी जरूर दर्ज हुई है, पर इसकी रफ्तार बहुत धीमी है। फिर, कई और तथ्य भी हैं जो बेहद चिंताजनक हैं।
देश में हर साल लाखों बच्चे ऐसी बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं जिनका आसानी से इलाज हो सकता है। बाल श्रम के खिलाफ कानून के बावजूद लाखों बच्चे मजदूरी करने को विवश हैं। अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बाद स्कूल-वंचित बच्चों की तादाद में कमी आई है, पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से कराया गया एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि अब भी देश के छह से चौदह साल के साठ लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। भुखमरी और कुपोषण का चरम रूप जब कहीं हादसे की शक्ल में सामने आता है तो वह जरूर कुछ समय के लिए चर्चा का विषय बनता है, लेकिन जल्दी ही उसे भुला दिया जाता है। मगर यह त्रासदी एक सामान्य परिघटना के तौर पर हर समय जारी रहती है। ऐसी घटनाओं का सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार संज्ञान लिया और सरकारों को संविधान के अनुच्छेद इक्कीस की याद दिलाई है जिसमें गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार की बात कही गई है। मगर हमारी सरकारों ने इस अनुच्छेद को कभी गंभीरता से नहीं लिया है।
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