जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: भूजल का स्तर देश के तमाम हिस्सों में जिस तरह नीचे खिसकता जा रहा है, वह एक बड़े जल संकट का रूप ले सकता है। विडंबना यह है कि न सरकारें इस मामले में संजीदा दिखती हैं न समाज। पंजाब के कई इलाके डार्क जोन की श्रेणी में आ चुके हैं, यानी वहां अब जमीन के नीचे से पानी निकालना संभव नहीं रह गया है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हालत भी कम चिंताजनक नहीं है। यहां विकास की चकाचौंध के बीच एक बड़े खतरे की घंटी भी बज रही है।केंद्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों के भूजल विभागों के सहयोग से हुआ अध्ययन बताता है कि दिल्ली में हर साल सिंचाई के लिए चौदह करोड़ घन मीटर और घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग के लिए पचीस करोड़ घन मीटर भूजल का दोहन होता है। इस तरह भविष्य के लिए यहां सिर्फ दस लाख घन मीटर पानी बचता है। गुड़गांव सहित हरियाणा के तमाम जिलों में आने वाले दिनों के लिए इस्तेमाल योग्य भूजल का स्तर ऋणात्मक स्थिति में पहुंच चुका है। नोएडा और गाजियाबाद में भी स्थिति इससे थोड़ी ही बेहतर है। पर वहां भी भूजल का स्तर ऋणात्मक है। अध्ययन में यह भी उजागर हुआ है कि भवन निर्माता कंपनियां भूजल के अंधाधुंध दोहन में सबसे आगे हैं। इन पर नजर रखने का कोई कारगर तंत्र नहीं है।
दिल्ली और इसके आसपास के शहरों में लोग इसलिए भूजल पर आश्रित हैं कि जल बोर्ड जरूरत भर पानी की आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली की ज्यादातर हाउसिंग सोसाइटियां भूजल पर निर्भर हैं। फिर भूजल का स्तर जैसे-जैसे नीचे जा रहा है, पानी में हानिकारक तत्त्वों का मिश्रण बढ़ता जा रहा है। ऐसे में उस पानी को इस्तेमाल लायक बनाने के लिए लोग बड़े पैमाने पर शोधन संयंत्र लगाने लगे हैं। इसमें बहुत सारा पानी बर्बाद चला जाता है। इसी तरह बोतलबंद पानी का कारोबार करने वाली इकाइयां गैर-कानूनी तरीके से भूजल का दोहन कर रही हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने उन पर नकेल कसने की मुहिम शुरू की, मगर प्रशासन की संजीदगी के अभाव में इसके सकारात्मक नतीजे शायद ही आ पाएं। समझना मुश्किल है कि जब दिल्ली और आसपास के इलाकों में नलकूप लगाने पर कानूनन प्रतिबंध है तो जल बोर्ड, पर्यावरण विभाग, नगर निगम आदि की नजरों से बचकर लोग कैसे नलकूप लगा लेते हैं? भवन निर्माताओं को चाहे जितनी मात्रा में पानी खींचने और बहाने की इजाजत किस आधार पर दे दी जाती है? वर्षा जल संचय को लेकर बने दिशा-निर्देश के बावजूद सरकारी परिसरों, दफ्तरों, रिहाइशी कॉलोनियों वगैरह में इसके उपाय अभी तक नहीं हो पाए हैं?
जब पानी, बिजली आदि की बर्बादी को लेकर कोई अध्ययन आता है तो सरकारें तात्कालिक प्रभाव में कोई नया कानून या नियम-कायदा बना कर और कड़े दंड-जुर्माने के प्रावधान कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती हैं। वे यह देखना जरूरी नहीं समझतीं कि उन पर कहां तक अमल हो रहा है। पानी सबकी बुनियादी जरूरत है, इंसान के साथ ही पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की भी। विकास को लेकर अलग-अलग अवधारणाएं हो सकती हैं, पर पानी का सवाल हमारे वजूद से ताल्लुक रखता है। तेल या गैस का विकल्प हो सकता है, पर पानी का नहीं। इसलिए पानी को सहेजने और उसके विवेकपूर्ण इस्तेमाल की आदतें, नीतियां और नियम-कायदे अपनाना कोई वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व से जुड़ा तकाजा है।
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