हर किसी का सपना होता है कि शहर में उसका भी अपना एक घर हो। इसके लिए वह अपने जीवन भर की पूंजी लगा देता है। खासकर मध्यम वर्ग के लोग इस सपने को पूरा करने के लिए अपने दैनिक खर्चे में कटौती कर बैंकों से कर्ज भी लेते हैं। मगर परेशानी तब बढ़ जाती है, जब तय समय पर उन्हें घर नहीं मिल पाता है। जाहिर है यह सब भवन निर्माताओं की मनमानी की वजह से ही होता है। ऐसे मामलों में कर्ज देने वाले बैंकों की भूमिका पर भी सवाल उठते रहे हैं।

देशभर में ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें भवन निर्माताओं और बैंकों के बीच साठगांठ के आरोप लगे हैं। इसी घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर के बाद अब मुंबई, बंगलुरु, कोलकाता, मोहाली और प्रयागराज में घर खरीदारों से धोखाधड़ी करने के आरोप में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को छह नए मामले दर्ज करने की अनुमति दी है। सीबीआइ का कहना है कि प्रारंभिक जांच से पता चला है कि इस संबंध में संज्ञेय अपराध का मामला बनता है।

इसमें दोराय नहीं कि मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए बढ़ती महंगाई के इस दौर में शहरों में घर खरीदने के वास्ते रकम जुटाना काफी मुश्किल होता है। ऐसे में बैंकों से कर्ज लेना ही एकमात्र विकल्प होता है। मगर इन्हीं बैंकों के कर्मी अगर भवन निर्माताओं के साथ साठगांठ कर घर खरीदारों के साथ धोखाधड़ी करने लगें, तो कर्ज की यह सुविधा ही मुश्किल में डाल देती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस वर्ष जुलाई में दिल्ली-एनसीआर में घर खरीदारों के साथ धोखाधड़ी करने के आरोपों से जुड़े मामलों में बैंकों और भवन निर्माताओं के बीच साठगांठ की गहन जांच के लिए सीबीआइ को बाईस मामले दर्ज करने की अनुमति दी थी। ये मामले एनसीआर में कार्यरत भवन निर्माताओं और उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा के विकास प्राधिकरणों से संबंधित हैं। इसके साथ ही न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर के बाहर की आवास परियोजनाओं की प्रारंभिक जांच करने के लिए सीबीआइ को छह सप्ताह का समय दिया था।

दरअसल, शहरों में घर खरीदने वालों के लिए बैंकों ने ब्याज अनुदान योजना शुरू की है। इसके तहत बैंक स्वीकृत राशि सीधे भवन निर्माता के खातों में जमा करते हैं, जिन्हें तब तक स्वीकृत ऋण राशि पर किस्त का भुगतान करना होता है, जब तक कि आवास खरीदारों को नहीं सौंप दिए जाते।

सर्वोच्च न्यायालय ऐसे 1,200 से अधिक घर खरीदारों की याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है, जिन्होंने एनसीआर, विशेष रूप से नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गुरुग्राम में विभिन्न आवास परियोजनाओं में ब्याज अनुदान योजनाओं के तहत आवास बुक किए थे। याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि आवास का कब्जा अभी तक नहीं मिला है और बैंक उन्हें कर्ज की किस्तों का भुगतान करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि बैंक नियमों के विपरीत घर खरीदारों पर दबाव क्यों बना रहे हैं?

साफ है कि बैंकों का यह रवैया आपसी मिलीभगत की ओर इशारा करता है और यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने इन मामलों में कडा संज्ञान लिया है। दूसरी ओर सरकार को भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए। विभिन्न परियोजनाओं के तहत घर खरीदने की पेशकश करने वाले भवन निर्माताओं और कर्ज देने वाले बैंकों पर नजर रखने के लिए माकूल निगरानी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए, ताकि खरीदारों के हितों की रक्षा हो सके।