महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले चार सालों से नाटकीय घटनाक्रम थमने का नाम नहीं ले रहे। अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तिरपन में से चालीस विधायकों ने आश्चर्यचकित करते हुए एकनाथ शिंदे सरकार को समर्थन दे दिया। अजित पवार उपमुख्यमंत्री बन गए और राकांपा के आठ विधायक मंत्री पद पा गए। इसे कुछ लोग भाजपा की बड़ी जीत और शरद पवार को बड़ा झटका मान रहे हैं।

एकनाथ शिंदे खुश हैं कि उनकी सरकार को और ताकत मिल गई है। कई लोग इसे भाजपा की बदले की कार्रवाई मान रहे हैं। दरअसल, इस बार का विधानसभा चुनाव भाजपा और शिवसेना ने साथ मिल कर लड़ा था। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। मगर शिवसेना ने उसके साथ सरकार बनाने से इंकार कर दिया था। उस वक्त भी अजित पवार भाजपा के साथ खड़े हो गए थे।

देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री और अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी। मगर राकांपा के विधायकों ने अजित पवार का साथ नहीं दिया और वह सरकार तीन दिन में ही गिर गई थी। फिर शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस के गठबंधन से महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी। मगर करीब दो साल बाद एकनाथ शिंदे ने बगावत कर दी और शिवसेना के ज्यादातर विधायकों को लेकर भाजपा से हाथ मिला लिया था। इस तरह उद्धव ठाकरे सरकार गिर गई। अब वही घटनाक्रम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में दोहराया गया है।

इस बार अजित पवार के एकनाथ शिंदे सरकार में शामिल होने से निस्संदेह राकांपा को बड़ा झटका लगा है, क्योंकि उसके ज्यादातर बड़े और शरद पवार के भरोसेमंद नेता पार्टी से अलग हो गए हैं। कहा जा रहा है कि बागी नेता अब पार्टी के नाम और निशान पर भी अपना दावा ठोंकेंगे। हालांकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अजित पवार और उनके साथ गए नेताओं के कदम को गैरकानूनी बता रही है।

पार्टी नियमों के तहत न तो अजित पवार को विधायक दल की बैठक बुलाने का अधिकार था और न पार्टी आलाकमान की इजाजत के बगैर उन्हें इस तरह सरकार में शामिल होने का। इसे अदालत में चुनौती देने की प्रक्रिया भी चल रही है। इसी तरह शिवसेना ने भी एकनाथ शिंदे और बागी विधायकों को कानूनी चुनौती दी थी, मगर उसका कोई लाभ उसे नहीं मिला। राकांपा को भी इसमें कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। अगले साल वहां विधानसभा के चुनाव हैं और तब तक अदालती कार्रवाई शायद ही पूरी हो पाए।

यह ठीक है कि चुन कर आए प्रतिनिधियों को सरकार बनाने के समीकरण तय करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। मगर जिस तरह महाराष्ट्र में पिछले चार सालों में सैद्धांतिक मूल्यों को धता बताते हुए सत्ता में शामिल होने की दौड़ चल रही है, उससे आखिरकार ठगे मतदाता जा रहे हैं। मतदाता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव न केवल उनके व्यक्तित्व को देख कर करते, बल्कि उनकी पार्टी के सिद्धांतों को भी तरजीह देते हैं।

शिवसेना को छोड़ कर अलग हुए नेताओं को मतदाताओं ने शिवसेना के सिद्धांतों के आधार पर चुना था। इस तरह जब वे अलग हुए तो उन्होंने अपने मतदाताओं की भावनाओं को आहत किया। इसी तरह राकांपा के विधायकों ने पार्टी से बगावत कर अपने मतदाताओं को ही ठगा है। हर राजनीतिक दल और विधायक चुनाव इसीलिए लड़ता है कि सत्ता में आए, मगर सिद्धांतों और नियम-कायदों को तिलांजलि देकर केवल सत्तासुख के लिए समझौता कर लेन से आखिरकार लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन ही होता है।