चिकित्सक को भगवान का दूसरा रूप माना जाता है, क्योंकि वह अपने ज्ञान और कौशल से मरीजों का जीवन बचाने और उसे बेहतर बनाने का काम करता है। चिकित्सक को मरीज के शारीरिक कष्ट का ही नहीं, बल्कि उसकी मानसिक स्थिति का भी ध्यान रखना होता है। ऐसे में चिकित्सक का व्यवहार और संवेदनशीलता कई मायनों में महत्त्वपूर्ण होती है। लेकिन कोई चिकित्सक अगर इलाज के दौरान आपा खोकर मरीज पर ही हमला कर दे, तो उसे क्या कहा जाएगा।

हिमाचल प्रदेश के शिमला स्थित इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज एवं अस्पताल में सोमवार को ऐसा ही मामला सामने आया, जिसमें एक चिकित्सक ने मरीज के साथ बहस के बाद उसकी पिटाई कर दी। मामले ने तूल पकड़ा, तो अस्पताल प्रबंधन ने आरोपी चिकित्सक को निलंबित कर घटना की जांच शुरू कर दी। सवाल है कि अगर कोई मरीज असंतुलित व्यवहार भी करता है, तो क्या चिकित्सक का इस कदर आक्रामक होना उचित है? क्या उसका यह दायित्व नहीं है कि वह मरीज की मनोदशा समझकर संवेदनशील और संयमित तरीके से प्रतिक्रिया दे?

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इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों के अभाव का संकट बढ़ता जा रहा है, जिस कारण काम का दबाव भी बढ़ गया है। ऐसे में कई बार चिकित्सकों का व्यवहार सख्त हो सकता है, लेकिन उनसे मरीज के साथ मारपीट करने जैसी हरकत की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

शिमला के अस्पताल में जिस मरीज के साथ मारपीट की गई, वह फेफड़ों में तकलीफ की शिकायत लेकर वहां आया था। जांच के बाद सांस लेने में दिक्कत होने पर उसे अस्पताल में ही कुछ समय के लिए आराम करने की सलाह दी गई। इसके बाद वह एक वार्ड में खाली पड़े बिस्तर पर लेट गया और इसी को लेकर चिकित्सक के साथ उसकी बहस हो गई।

सवाल है कि अगर कोई मरीज भर्ती हुए बिना अस्पताल के खाली पड़े बिस्तर पर कुछ देर आराम कर ले, तो उस पर किसी चिकित्सक को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? चिकित्सक का प्राथमिक दायित्व मरीज के प्रति संवेदनशील होना और उसे राहत देने का होना चाहिए या नियम की दुहाई देकर उसे प्रताड़ित करने का? चिकित्सकों और प्रशासनिक अधिकारियों को इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।