विकासशील देशों में प्रदूषण ने इंसान के सामने कैसी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, यह सब जानते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या से लड़ने के लिए बैठकें होती हैं, हर वर्ष नए उपाय बताए जाते हैं। मगर विडंबना है कि इस समस्या की गंभीरता और इसके कारणों के बिल्कुल स्पष्ट होने के बावजूद उससे निपटने के लिए ठोस कदम उठाना जरूरी नहीं समझा जाता। यही वजह है कि अब इस समस्या के बढ़ते दायरे ने व्यापक तबाही के संकेत देने शुरू कर दिए हैं।

हालांकि हवा में जहर घुलने से कई तरह की बीमारियों की चपेट में लोगों के आने के तथ्य एक बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं और इस हकीकत से मुंह मोड़ना अब संभव नहीं रह गया है। मगर हाल के वर्षों में जंगलों में लगने वाली आग की वजह से हवा में जो प्रदूषण घुल रहा है, उससे भारी संख्या में लोगों की जान जा रही है। स्वास्थ्य पत्रिका ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित एक अध्ययन में इससे संबंधित जो ब्योरा सामने आया है, वह इसकी गंभीरता को रेखांकित करने के लिए काफी है।

गौरतलब है कि जंगलों और घास के मैदानों में लगने वाली आग और प्रदूषण से सांस संबंधी बीमारियों के कारण हर वर्ष लगभग साढ़े चार लाख लोगों की जान चली जाती है। इनमें नब्बे फीसद से ज्यादा मौतें निम्न और मध्यम आयवर्ग वाले देशों में होती है। अध्ययन में आशंका जताई गई है कि जंगल में आग की घटनाओं में बढ़ोतरी के साथ-साथ मरने वालों की संख्या में भी इजाफा होता जाएगा।

ऐसी समस्या से निपटने के लिए विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को आर्थिक और तकनीकी मदद उपलब्ध कराने की जरूरत पर जोर दिया जाता रहा है, लेकिन समृद्ध देश हर ऐसे मौके पर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। हैरानी की बात है कि विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में चरम विकास के दौर में भी जंगल में आग की घटनाओं से पार पाना एक चुनौती बनी हुई है। सवाल है कि जब तक इस समस्या पर प्राथमिकता के साथ काम नहीं किया जाएगा, तब तक इसके हल का रास्ता निकालना कैसे संभव होगा!