सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप और नसीहतों के बावजूद तमिलनाडु और केरल में सरकार और राज्यपाल के बीच रिश्ते तकरार के ही बने हुए हैं। केरल के राज्यपाल और मुख्यमंत्री तो अब सार्वजनिक मंचों से भी एक-दूसरे के खिलाफ जुबानी जंग शुरू कर चुके हैं। उस तल्खी में भाषा की मर्यादा भी लांघने की कोशिश नजर आती है।

राज्यपाल इस बात से आहत हैं कि केरल सरकार विश्वविद्यालयों के सीनेट सदस्यों के मनोनयन में उनकी अवहेलना कर रही है। उन्होंने खुलेआम कहा है कि वे ऐसे मनोनयन को रद्द कर देंगे। उधर मुख्यमंत्री ने उन्हें ‘अवसरवादी’ तक कह दिया। उधर तमिलनाडु के राज्यपाल सरकार द्वारा विधानसभा में पारित विधेयकों को मंजूरी देने के बजाय लटकाए हुए हैं।

एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने सलाह दी है कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल को आमने-सामने बैठ कर अपने मतभेदों को सुलझा लेना चाहिए। हालांकि अदालत यह बात पहले भी कह चुकी है। पंजाब के मामले में सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या करते हुए यहां तक कह दिया था कि इसे सभी राज्यपालों को समझने की जरूरत है। मगर तमिलनाडु के राज्यपाल अपने रुख पर कायम रहे। फिलहाल तमिलनाडु मामले की सुनवाई अगले महीने तक के लिए टाल दी गई है, मगर इसमें भी जो फैसला आएगा, स्पष्ट है कि वही होगा, जो पंजाब के मामले में था।

दरअसल, केरल और तमिलनाडु के राज्यपाल इस बात से आहत हैं कि इन दोनों राज्यों की सरकारों ने विधानसभा में विधेयक पारित कर राज्यपाल को विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद से बेदखल कर दिया। हालांकि इन दो राज्यों के अलावा राजस्थान, पश्चिम बंगाल और पंजाब सरकार ने भी इसी आशय का विधेयक पारित किया था।

दरअसल, यह झगड़ा इसलिए शुरू हुआ था कि राज्य सरकारों द्वारा कुलपतियों के प्रस्तावित नामों पर राज्यपाल आपत्ति जताने और विश्वविद्यालयों की सीनेट में दखल देने लगे थे। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पश्चिम बंगाल और पंजाब में इसे लेकर तकरार थम गई, मगर तमिलनाडु और केरल में बरकरार है। उसी के बहाने दूसरे विधेयकों को भी राज्यपाल लटका देते हैं, जो जनहित से जुड़े होते हैं। तमिलनाडु के मामले में सुनवाई के वक्त सरकार के वकील ने कहा भी कि इस झगड़े को आपस में बैठ कर सुलझाया नहीं जा सकता, अदालत के आदेश से ही इसका निपटारा हो सकेगा।

यह विडंबना है कि एक चुनी हुई सरकार के फैसलों में राज्यपाल नाहक हस्तक्षेप कर गतिरोध पैदा करने की कोशिश करें और फिर वह झगड़ा अदालत को सुलझाना पड़े। राज्यपाल के अधिकार संविधान में स्पष्ट वर्णित हैं। उन्हें चुनी हुई सरकार की सलाह और सहयोग से राज्य में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने का दायित्व है।

मगर पिछले कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि जिन राज्यों में केंद्र के विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां राज्यपाल और सरकार के बीच अक्सर तनातनी का वातावरण बन जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर रेखांकित किया है कि राज्यपाल के पास तीन ही विकल्प होते हैं- वे विधेयक को पास करें, लौटा दें या राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दें।

संविधान के मुताबिक किसी विधेयक के लौटाए जाने पर अगर विधानसभा फिर उसे पारित कर देती है, तो राज्यपाल के पास उसे मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। इसलिए कई राज्यपाल विधेयक को लटकाए रखने का रास्ता अख्तियार करते हैं। जाहिर है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन है।