दिल्ली में कानून-व्यवस्था और नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी को लेकर पुलिस और राज्य सरकार के बीच टकराव या आरोप-प्रत्यारोप नई बात नहीं है। लेकिन सोमवार को दिल्ली के पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी ने वार्षिक संवाददाता सम्मेलन में अपने महकमे के कार्यों और वस्तुस्थिति का ब्योरा देते हुए जिस तरह की राय जाहिर की, वह किसी राजनीतिक बयानबाजी की तरह ही लगती है। गौरतलब है कि राजधानी में पिछले साल भर में अपराधों के ग्राफ और पुलिस की भूमिका के बारे में बताते हुए बस्सी ने कहा कि दिल्ली वाले खुशकिस्मत हैं कि यहां की पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन नहीं है। खबरों के मुताबिक उन्होंने यह भी कह डाला कि दिल्ली में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का कोई स्थानीय हित नहीं हो सकता, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री का स्थानीय हित जरूर होगा, जिसका असर पुलिस की निष्पक्ष कार्यप्रणाली पर पड़ेगा। अपने विभाग के मुखिया की हैसियत से महज अंदाजे या अनुमान के आधार पर ऐसी बातें करने से उन्हें बचना चाहिए था।

इसके अलावा, उन्होंने बलात्कार के अपराधी को जिस तरह सरेआम गोली मार देने की बात कही, वह पुलिस महकमे का नेतृत्व संभालने के बावजूद कानून-व्यवस्था और न्याय प्रक्रिया को लेकर उनकी अगंभीरता को दर्शाता है। कानून-व्यवस्था और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय भीड़वादी मानसिकता का इजहार किस लिहाज से सही कहा जाएगा? हैरानी की बात है कि एक ओर वे दिल्ली में कुल दर्ज अपराधों की संख्या में चौबीस फीसद की बढ़ोतरी के आंकड़े पेश कर रहे थे, वहीं पुलिस के दिल्ली सरकार से ‘आजाद’ होने पर राहत की बात कह रहे थे। अब तक राजधानी की कानून-व्यवस्था बनाए रखने और अपराधों पर काबू पाने की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस के ही जिम्मे है और यहां की सरकारें इस दायित्व में बाधक नहीं बनी हैं। लेकिन क्या वजह है कि अमूमन हर साल अपराधों के आंकड़े में इजाफा हुआ दिखता है! ((खासतौर पर महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कोई कमी तब भी नहीं आ पा रही है, जब समाज में जागरूकता का स्तर बढ़ने और पुलिस की ओर से महिलाओं को सुरक्षित माहौल मुहैया कराने के दावे किए जा रहे हैं।))

यह सही है कि दिल्ली पुलिस यहां की सरकार के तहत काम नहीं करती है। इसके पीछे कोई सुचिंतित व्यवस्था काम कर रही होगी और उसके पक्ष में अपने तर्क हैं। लोकतंत्र में जरूरत के हिसाब से नई स्थितियों और व्यवस्था में फेरबदल की मांग की जाती रही है। यही वजह है कि दिल्ली पुलिस को यहां की सरकार के अधीन लाने को लेकर काफी समय से खींचातानी चल रही है। लेकिन सवाल है कि किसी राज्य की कानून-व्यवस्था संभालने वाले महकमे के मुखिया को एक विपक्षी दल के राजनीतिक की भाषा क्यों बोलनी चाहिए! यह एक ही राज्य में व्यवस्था का तकनीकी हिस्सा होने के बावजूद दो समांतर सत्ताओं के रूप में पुलिस और सरकार का आमने-सामने होना है, जिसमें अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए दूसरे पर अंगुली उठाई जाती है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है और मुख्य विपक्षी दल भाजपा है। दोनों के बीच राजनीतिक टकराव भी छिपा हुआ नहीं है। लेकिन पुलिस आयुक्त के बयान में अगर केंद्र की भाजपा सरकार को खुश करने की कोशिश दिखे, तो सवाल उठना लाजिमी है। दिल्ली के लोगों को इस तरह के टकराव से नहीं, कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकार और पुलिस के बीच उचित तालमेल से ही राहत मिल सकती है।